जीर्ण शीर्ण काया में, जमींदार की माया! प्रसिद्ध यादव।
अलमुनियम की थाली, लोटा,शरीर पर फ़टे पुराने कुचैले कपड़े, बाल दाढ़ी बढ़े हुए, शरीर में केवल हड्डियों ही दिखाई देती और खण्डहर हवेली के बाहर बैठा रहता। गांव वाले कोई न कोई खाना दे देता। मेरा बाल मन उसे देखता, लेकिन उसके बाद उसके बारे में जानने की हिम्मत नही होती कि कौन है क्या है आदि। जब युवा हो गए और उस गांव में गये तब फिर उस खंडहर के पास उस आदमी के तलाश में गया, लेकिन वो नही मिले। बगल वाले से पूछा और बताया तब मैं दंग रह गया। वो आदमी उस गांव का जमींदार था। बचपन से ही ऐयासी प्रवृत्ति के था। सूरा और सुंदरी उसकी परछाई थी। समय पर उसकी शादी हुई, लेकिन उसकी बुरी लत के कारण पत्नी छोड़कर चली गई। धीरे धीरे उसकी संपत्ति बिकती चली गयी।गंभीर बीमारी हो गयी घर द्वार सब बिक गए। 50 वर्ष की अवस्था में 80 साल के बुजुर्ग जैसे लगता। धन के दुरुपयोग से तन धन मन तीनों क्षय हो गया था और एकदिन परलोक सिधार गए तब अंतिम संस्कार भी गांव के चंदा से ही हुआ था। मैं यह दास्तान सुनकर दंग रह गया। आज भी अपने पास जमींदारों को देखता हूँ, उनकी भी दशा कमोवेश यही है।सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक नशे में चूर और शरीर भी काँपते देखता हूँ। इसे लोग हमसे उम्र में काफी छोटे हैं, लेकिन अभी भी रस्सी जल गयी, ऐंठन नही गयी। कहावत चरितार्थ है।
Lekh ke kalm ko salam all viram lekin purn viram sambho ki aur na jaaye huye bhi bhabishy me aarhi chinoy ko dikhaya huaa aaeena he punh salam
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