पैसों के केंद्र में राजनीति! अनीति ही अनीति - प्रसिद्ध यादव
मूर्खों की सवारी करते हैं अनारी!
अब चुनाव सिर्फ पैसों का खेल रह गया है। आदमी की पहचान, रुतबा, सम्मान पैसों से होने लगा है। पंचायत चुनाव में जब से विकास के लिए फंड आना शुरू हुआ है तब से वोटों का पैसों से व्यपार हो गया है। येन केन प्रकरेण पैसे कमाने वालों की पूछ हो गई है। समाजसेवी, राजनीतिज्ञ हाशिये पर जा रहे हैं। पंचायत चुनाव में भले ही लोगों के सर पर ताज मिल रहा है, लेकिन उनके दिल में ये कसक जरूर होगी कि यह ताज जनमत नहीं, पैसों से मोल भाव कर के खरीदा गया है, कुछ अपवादों को छोड़कर। जो पैसा से वोट खरीदा है, क्या वैसे जनप्रतिनिधि अपनी लागत सूद सहित वसूल नही करेंगे? अगर वसूल करेंगे, तब इसको मोनेटरिंग करने वाले कहाँ रहते हैं। क्षेत्र के तथाकथित नेता चुनाव बाद सो जाते हैं और भ्रष्टाचार फलने फूलने लगता है। इस पर अंकुश लगाने वाले वही सामाजिक कार्यकर्ता जूझते हैं। ऐसे लोग निस्वार्थ समाज की सेवा करते रहते हैं, लेकिन पैसों की दुनिया में इनके मूल्यांकन, पद प्रतिष्ठा नही मिलना चिंताजनक है। समाज भावनात्मक लगाव, अपनापन,संवेदना, भाईचारे से चलता है न कि सिर्फ पैसों से। पैसा साधन है, साध्य नहीं। पहले बिना पैसों के पंचायत प्रतिनिधि ही नहीं, विधायक, सांसद बन जाते थे। अब पंचायत के वार्ड पार्षद के लिए भी हजारों खर्च करने पड़ते हैं, जिला पार्षद, मुखिया, पंचायत समिति के लिए लाखों फूंकने पड़ते हैं। पैसे लेकर वोट देने वाले कि क्या दुर्गति होती है, वो पैसे लेने वाले ही जाने। मूर्खों की सफलता के बजाय विद्वानों की असफलता से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। मूर्खों की संगति से अच्छा है अकेला रहना।
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