मिर्जा गालिब के कुछ शायरी को जानें। प्रसिद्ध यादव।

     


    वक्ताओं  ने सबसे अधिक ग़ालिब की शायरी को कोट किया है।

यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,

अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

 दिल के खुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

उनको देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,

वो समझते हैं के बीमार का हाल अच्छा है

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे

तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता

तुम न आए तो क्या सहर न हुई

हाँ मगर चैन से बसर न हुई

मेरा नाला सुना ज़माने ने

एक तुम हो जिसे ख़बर न थी 

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझको उन्होंने  ने , मैं होता तो क्या होता !

हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,

ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा

कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे

वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन

हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़

सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार

ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी

तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता

 वरना  शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!

कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते है

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को

ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें

हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते


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