"मातृभाषा में साहित्य और समाज पर उसका प्रभाव"-प्रसिद्ध यादव।
मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। ... मातृभाषा से इतर राष्ट्र के संस्कृति की संकल्पना अपूर्ण है। मातृभाषा मानव की चेतना के साथ-साथ लोकचेतना और मानवता के विकास का भी अभिलेखागार होती है।
हिंदी स्वाधीनता आंदोलन की भाषा थी, आधुनिकता के गर्भ से जन्मी स्वाधीनता आंदोलन की भाषा, तभी इसने तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज, सब तरह के शब्द-समूहों को एक पांत, एक चटाई पर बिठाया। ऐसा ही अन्य मातृभाषाओं में भी हुआ, पर सरकारी समितियां इस सहज सहकारी प्रवृत्ति के विरुद्ध आचरण करके शुद्धता रचती हैं। जैसे हर व्यक्ति अपने ढंग से अनूठा है, हर भाषा भी। ठीक है, कुछ भाषाओं के पास अधिक समृद्ध साहित्य की विरासत है पर जनतंत्र में विरासत शब्द भी 'मूंछ' पर ताव देने का माध्यम नहीं बनना चाहिए। कोई अनाम-गोत्र है, उसके पीछे विरासत की गठरी नहीं तो भी वह इतना ही अनूठा है, उसमें भी उतनी ही संभावनाएं मौजूद हैं, जिन्हें सामने लाने का हरसंभव प्रयास न सिर्फ सरकारी समितियों बल्कि भगिनी भाषाओं को भी करना चाहिए, उससे बोल-बतियाकर, उसका संकोच तोड़कर, सुंदर अनुवादों के द्वारा उसमें नए स्वर, नई बिजली भरकर। लेकिन ये प्रयास 'आरोपित'नहीं लगने चाहिए और न इस भाव से किए जाने चाहिए जैसे कृपा की जाती है या जबरदस्ती।
मातृभाषा भी मां ही है। हर संकट, हर दुविधा की घड़ी में, अंतरंग संवाद के लिए उसका उपलब्ध रहना जरूरी है। आठवीं के बाद मातृभाषाएं क्या, हिंदी भी पाठ्यक्रमों से गायब हो जाती हैं। माता-पिता, शिक्षक, किताब की दुकानें, वीडियो-कंपनियों, वाचनालय, पुस्तकालय, नाट्यमंडल आदि को इस ओर अत्यधिक सजग होना होगा कि ढेर सारी कहानियां-कविताएं मातृभाषा में बच्चों को उपलब्ध हों ताकि मातृभाषा रक्त में रसधार-सी बहे। अंग्रेजी ने यह काम बखूबी किया और 'नर्सरी राइम' था 'फेयरी टेल्स' मनहर किताबों का चस्का बचपन से अपने उपनिवेश के सब कर्णधारों को लगाया। साथ ही चमकीली और रोचक पुस्तकें भी अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध कराईं तो वर्ग-विशेष के लिए यह 'धाय मां' 'मां' हो गयी।
अंग्रेजी प्रचारतंत्र की भाषा है, चुस्त प्रबंधन-नियोजन की भाषा। मगर मेधा के फलक का विस्तार प्रचारतंत्र की भाषा से नहीं होता। मेधा के फलक का विस्तार तो निरंतर साधना द्वारा अर्जित चित्त-विस्तार से ही होता है। किताबें बाजार का हिस्सा हैं, इसलिए अंग्रेजी की किताबें दूर तक पहुंचती हैं। प्री-व्यू, रीव्यू, विज्ञापन, बुक प्रमोशन टुअर आदि टीम-टाम की व्यवस्था अंग्रेजी प्रकाशक अधिक कुशलता से कर पाते हैं क्योंकि अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के जोर पर शुरू से ही रही।हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने समानान्तर विक्रय व्यवस्था खड़ी की है किंतु अन्य प्रकाशकों को भी साथ लेकर चलना चाहिए। सब मिलकर, बाजार की तनातनी भूलकर गांवों-कस्बों और छोटे शहरों में, स्त्री, दलित और आदिवासी समूहों में समानांतर विक्रय केंद्र चलाएं। स्टेशन पर, बस स्टॉप, विद्यालय और विश्वविद्यालय के सामने मोबाइल वैन रखकर यह काम आसानी से हो सकता है। हमें स्पर्द्धा से चलने वाला नहीं बल्कि सहकारिता से चलने वाला समाज बनाना है। मातृभाषा की किताबें ही उन लोगों के जीवन में नई रोशनी भर सकती हैं, जिन्हें रोशनी की आवश्यकता सबसे ज्यादा है। उसी परिवेश से हमारे नए चिंतक-लेखक, समाज सेवक आएंगे। वंचित समाज और स्त्रियां उभरेंगी क्योंकि उनमें एक आदर्श समाज गढऩे का जज्बा अभी बाकी है और उनके मन में सामुदायिक जीवन का स्पंदन अभी बाकी है। वे पूरी तरह से आत्मलीन और स्वार्थी नहीं हुए। मातृभाषा की किताबों का थोड़ा प्रकाश मिल जाए तो वे बड़े परिवर्तन ला पाएंगे
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