व्यापारी को चाहिए धन भाड़ में जाए वतन- कवि गोरख प्रसाद मस्ताना।

 अखबार या विज्ञापन

विज्ञापनों से ढका चेहरा
मानो सत्य पर पड़ा पर्दा
किसी बुर्के से ढकी नारी की तरह
या
कफ़न में लिपटा कोई मुर्दा
हाँ! मुर्दा हो तो हैं जहाँ
केवल खबर है, हत्या, बलत्कार
न कोई चिंतन न सामाजिक सरोकार
सम्पादकीय या अरण्यरोदन
साफ दिखत हैं लाचारी
क्योंकि इसके मालिक है आदमी नहीं
व्यापारी
आदमी तो दूसरों का दुःख महसूसता है
व्यापारी को चाहिए धन
भाड़ में जाए वतन


आठ पन्नों में विज्ञापन
दो पन्नों में बाज़ार
और बाकिर बचे पृष्ठों में तन उघारु चित्रों की भरमार
भूल से भी कुछ जगह बच गयी
तो मांसल शारीर को बेचने के साधन का प्रचार
यही है प्रजातंत्र का चौथा खम्भा
या अचम्भा
लंगड़ा कर चलता है
बीमार की तरह
हमारा अख़बार
विज्ञापन के चश्मे से झाँकने वाला
जो स्वयं विद्रूप और विखंडित है
क्या गढ़ेगा नया भारत?

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