बाबा साहेब अंबेडकर के विचारआज भी प्रासंगिक! प्रसिद्ध यादव।
आज देश दुनिया में जिस तरह धार्मिक कट्टरता बढ़ गई है, चाहे वो किसी धर्म में हो, बाबा साहेब की तर्क पर आधारित ज्ञान और सत्य की अन्वेषण करता विज्ञान, बुद्ध के दर्शन प्रासंगिक हो गई है। भले ही धर्म के नाम पर , पाखंड के नाम पर थोडी खुशियां मना ले, लेकिन अन्तोगत्वा ज्ञान,विज्ञान ही सहारा होता है। डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर कानून के ज्ञाता होने के साथ एक पक्के राष्ट्रवादी थे. उनका एक बयान कि बकरियों की बलि चढ़ाई जाती है, शेरों की नहीं, बहुत कुछ कहता है। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी भारत के दलितों और अछूतों को सशक्त बनाकर समाज में सम्मान दिलाना। इस विषय पर उन्होंने किसी से समझौता नहीं किया।
जब 1932 में अंग्रेजी हुकूमत दलितों के लिए अलग मतदाता सूची और मतदान व्यवस्था करके हिन्दू समाज को बांटना चाहती थी तो अम्बेडकर ने मदन मोहन मालवीय और गांधी जी से मिलकर समझौता किया जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। अम्बेडकर ने हिन्दू कट्टरता से खिन्न होते हुए भी विराट सनातन सोच से बाहर जाने की कभी नहीं सोची। बौद्ध धर्म उसी सोच का अंग है।
आजादी की लड़ाई के अन्तिम दिनों में मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि मुसलमानों को अपना अलग देश चाहिए, चाहे जो कीमत चुकानी पड़े। महात्मा गांधी का निश्चित मत था कि भारत का बंटवारा किसी हालत में नहीं होना चाहिए चाहे जिन्ना को पूरे भारत का प्रधानमंत्री बनाना पड़े। अम्बेडकर का सोचना था कि यदि बंटवारा होता है तो दंगे और खूनखराबा हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त होना चाहिए। दुनिया में अन्य देशों के बंटवारे का ज्ञान उन्हें था, जहां इतना खून खराबा नहीं हुआ।
बंटवारा रोकने की बात नहीं बनी और जवाहर लाल नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना और वाइस राय माउन्टबेटेन ने शिमला में बैठकर पाकिस्तान निर्माण की योजना स्वीकार कर ली। नेहरू भारत के मजहबी बंटवारे के बाद जिन्ना को पाकिस्तान देकर भी शेष भारत में ऐसी व्यवस्था चाहते थे जैसे बंटवारा हुआ ही नही.
बंटवारे का जो भी फार्मूला सोचा होगा, भारत का एक चौथाई क्षेत्रफल पाकिस्तान के रूप में चला गया, शायद मुसलमानों की आबादी के अनुपात में। अम्बेडकर की आशंका सही निकली और बंटवारे के बाद भी दंगे समाप्त नहीं हुए। अम्बेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से अपने त्याग पत्र के भाषण में खुलकर कहा था कि पाकिस्तान में छूट गए हिन्दुओं और विशेष कर दलितों का जिक्र करते हुए कभी भी नेहरू को नहीं सुना।
अम्बेडकर कुशाग्र बुद्धि और व्यावहारिक सोच के धनी थे। उन्होंने दुनिया के अन्य देशों से सीख लेकर ग्रीस, टर्की और बुल्गैरिया का उदाहरण देते हुए बंटवारे के बाद आबादी की अदला-बदली के पक्ष में विचार रखे थे। उन्होंने यह बात अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान ऑर दि पार्टीशन आफ इंडिया' में लिखी है।
यदि अम्बेडकर की बात मान ली जाती तो आबादी की शान्तिपूर्ण अदला-बदली हो सकती थी, नेहरू ऐसा नहीं चाहते थे। एक तरफ जिन्ना की बात मान ली, दूसरी तरफ बंटवारे का तरीका अपना चलाया, जिससे बेतहाशा खून खराबा हुआ। आज भी बटवारे की मानसिकता बची है ।
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