शिक्षा के आधे बजट से देश कैसे बनेगा विश्वगुरु?-प्रसिद्ध यादव।

 



सरकार द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे बजट के माध्यम से उस सरकार के विजन और विकास की प्राथमिकताओं का ज्ञान होता है।मीडिया द्वारा आंकड़ों की अलग अलग प्रकार  तुलना से उनके चयन के द्वारा खराब स्थिति की अच्छी तस्वीर दिखाई जा रही थी। किंतु यह आंकड़े ही हैं जो इस अच्छी तस्वीर की सच्चाई को हम तक लाने का जरिया बनते हैं।वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यह स्वीकार किया कि कोविड-19 के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थियों और विशेषकर अनुसूचित जाति और जनजाति के विद्यार्थियों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई है किंतु उनकी यह स्वीकारोक्ति तब एक खोखले राजनीतिक जुमले में बदल गई जब  देखा कि पूरा शिक्षा बजट असमानता को बढ़ाने वाला है। इसमें वंचित समुदायों और महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं है। किसी बजट को आइसोलेशन में देखना उचित नहीं है। इसी प्रकार जब हम शिक्षा, स्वास्थ्य या कृषि अथवा अन्य किसी क्षेत्र में बजट में वृद्धि की बात करते हैं तो हमें मुद्रास्फीति का ध्यान रखना चाहिए। यह देखना भी जरूरी है कि जीडीपी और सम्पूर्ण बजट में उस क्षेत्र की हिस्सेदारी क्या है। यह जानना आवश्यक है कि विश्व के अन्य देश उस क्षेत्र विशेष में अपने बजट और जीडीपी का कितना हिस्सा व्यय करते हैं। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि संबंधित मंत्रालय द्वारा कितना आबंटन मांगा गया था और उसे कितना आवंटन मिला है।
वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में शिक्षा मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। वित्त वर्ष 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय का मूल बजटीय आबंटन घटाकर 93,224.31 करोड़ रूपए कर दिया गया था। इस वर्ष शिक्षा के लिए मूल बजटीय आवंटन 1 लाख 4 हजार 277 करोड़ रुपए है। यदि 2020-21 से तुलना करें तो यह वृद्धि अधिक नहीं है। 
भारत सरकार, के अनुसार पिछले वर्ष बड़े जोर शोर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की घोषणा की गई थी यदि इसमें दिए सुझावों पर गौर करें तो एक सुझाव यह भी है कि शिक्षा क्षेत्र के लिए जीडीपी के 6 प्रतिशत का आवंटन किया जाए किंतु वास्तविकता यह है कि शिक्षा पर व्यय इससे कहीं कम है।
31 जनवरी 2022 को प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 में शिक्षा पर व्यय जीडीपी का 2.8 प्रतिशत था जबकि 2020-21 एवं 2021-22 में यह जीडीपी का 3.1 प्रतिशत था। शिक्षा बजट ने भले ही एक लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया हो किंतु अभी भी यह जीडीपी के 6 प्रतिशत के वांछित स्तर का लगभग आधा है।अनेक शिक्षा विशेषज्ञ शिक्षा अधोसंरचना के बजट में कटौती को लेकर चिंतित हैं। इनके अनुसार यदि सरकार यह मान रही है कि सीखने की गैरबराबरी को टीवी चैनलों के जरिए दूर किया जा सकता है तो वह बहुत भ्रम  में है। 
   किसी भी प्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता का आकलन करने का एक महत्वपूर्ण संकेतक छात्र-शिक्षकल1 अनुपात होता है। यह अनुपात जितना कम होगा, शिक्षा उतनी ही गुणवत्तापूर्ण होगी और छात्र उतना ही बेहतर ढंग से शिक्षा ग्रहण कर पाएंगे। छात्र-शिक्षक अनुपात कम होने का तात्पर्य पर्याप्त संख्या में शिक्षकों की उपलब्धता से भी लगाया जाता है। सामान्यत: एक शिक्षक के कंधे पर जितने कम बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी होती है, वह उतना ही बेहतर ढंग से यह काम कर पाता है। हालांकि कुछ राज्यों में शिक्षकों के अभाव के कारण छात्र-शिक्षक अनुपात बेमेल है, जिसका असर उस राज्य की शैक्षिक गुणवत्ता पर भी पड़ा है। छात्र-शिक्षक अनुपात की रैंकिंग में सिक्किम पूरे देश में अव्वल है, जहां केवल सात छात्रों पर एक शिक्षक है। वहीं इस श्रेणी में सबसे फिसड्डी राज्य बिहार है, जहां 55.4 बच्चों पर एक शिक्षक उपलब्ध है। प्राथमिक शिक्षा में बिहार के अलावा केवल दिल्ली, झारखंड और उत्तर प्रदेश ही आरटीई कानून की शर्तो की पूर्ति नहीं करते हैं। इन राज्यों में एक शिक्षक के ऊपर 30 से अधिक छात्रों का दायित्व है।
हालांकि प्राथमिक स्तर पर बिहार के अलावा देश के सभी राज्य और केंद्रशासित प्रदेश यूनेस्को द्वारा निर्धारित मानक का पालन करते हैं। यूनेस्को ने छात्र-शिक्षक के 40:1 अनुपात को आदर्श माना है। वहीं नई शिक्षा नीति-2020 में विद्यालयी शिक्षा के हरेक स्तर पर छात्र-शिक्षक के अनुपात को 30:1 करने का लक्ष्य घोषित किया गया है। इसे कई क्षेत्रों में 25:1 भी किया जाना है। 1937 में महात्मा गांधी ने यही सुझाव नई तालीम के संदर्भ में देते हुए कहा था कि किसी कक्षा में बच्चों की संख्या करीब 25 होनी चाहिए। इसे 30 से ज्यादा किसी भी हाल में होना नहीं चाहिए। बहरहाल छात्र-शिक्षक अनुपात को संतुलित करने का एकमात्र समाधान शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने पर निर्भर करता है। जब तक शिक्षण संस्थान उच्च कोटि के नहीं होंगे, समाज के अंतिम पायदान तक इसकी रौशनी नही पहुंचेगी तब तक हम विश्वगुरू कैसे बनेंगे?

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