पिता श्री स्मृति में ...-प्रसिद्ध यादव।
मंगल भवन अमंगल हारी ,द्रवहुन सुदशरथ अजिर बिहारी ..यही रामचरित मानस की चौपाई गाकर सुबह उठते और मेरी भी नींद टूटती थी।सूर्योदय के पहले डियूटी जाते और देर रात घर लौटते थे। सप्ताह के 6 दिन यही रूटीन थी। घर से खगोल करीब 4 किमी रोज पैदल आना जाना रेलवे दानापुर के iow लाईन में कार्यरत थे।अनुशासन बड़ी सख्त थी। रविवार को दिनभर सराफत से दिन गुजरना होता था।25 दिसंबर 1995 को रेलवे अस्पताल में करीब 12 बजे दिन में मेरे सामने आखरी सांस लिये थे ।वो असहाय, निर्बल पल को देखा था,आंखों के सामने अंधेरा छा गया था, अंदर से मैं टूट गया था, दूर दूर तक जीवन में कोई सहारा नहीं था,न कोई विरासत.. केवल छोटे छोटे और 5 भाइयों की जिम्मेवारी!इसी का नाम जिंदगी है। शून्य से .. का यात्रा सिर्फ लग्न,मेहनत,ईमानदारी, सहयोग..।आज भी मैं स्वम वहीं के वहीं हूँ लोग ऊंची उड़ान भर रहे हैं खुशी होती है। जय जय श्री राज किशोरी ..शशि मुख भये चन्द्र चकोरी ..इसी भजन के साथ पिता श्री रात में सोते थे और हम भी सो जाते।
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