सख्त पहरा है यहाँ ! -प्रसिद्ध यादव ( कविता )
मुँह खोलना मना है
न सच बोलना है
न सुनना है
केवल झूठ में
" हाँ " में " हाँ "करना है।
मुंह खोलना मना है।
अगर गलती से किसी की
जुबान चल गई
सर क़लम करने की
फ़रमान चल गई ।
जुबान काटने की
करोड़ो कीमत लग गई।
यहाँ फ़िक्र नहीं
रोजी - रोजगार की
न महंगाई , न शिक्षा,
न स्वास्थ्य की।
बस ! चिंता है
धर्म , आस्था , जाति की
देवालय की रोजगार की
तर्क करना मना है ।
मुँह खोलना मना है ।
चलती रहे छल से
अंगूठा काटने की प्रथा
गर्दन काटने की प्रथा ।
क्या यही है आस्था ?
ऐसी ही रहे व्यवस्था।
जहां चमड़े की रंग देखकर
होती है मानव की पहचान ।
मिलती है उससे ही मान- सम्मान।
क्या ऐसे बनेंगे हम विश्वगुरु ?
क्या यही है मानवता की पहचान ?
अगर कोई किया इसे अवरुद्ध
होंगे परजीवी उसके विरुद्ध ।
न होगा कोई संशोधन ।
न होगा समाधान ।
हमेंशा याद रखना है ।
आँधियों में भी
चिराग जलती है ।
लहरों में, भँवर में भी
चलती है नाव ।
पहाड़ों के सीने चीरकर भी
रास्ते बने हैं ।
मुँह खोलना मना है ।
राजमहल को छोड़ बुद्ध
ज्ञान की ज्योत जलाए थे ।
पाखंडियों के बीच में भी कबीर
सखियों में समझाये थे ।
ज्योति। बा फुले , सावित्री बाई
साहू जी महाराज , पेरियार
ललाई यादव के
विचारों को जानना है ।
मुँह खोलना मना है।
न न्यायालय बड़ा ,न संसद
सबसे बड़ा विधान
हमारा पावन संविधान ।
बाबा साहेब अंबेडकर का सपना
सब हो एक समान ।
पढ़ो संविधान, जानो अधिकार ।
किसी के झांसे में न आना है।
मुँह खोलना मना है ।
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