"खुदी को कर बुलंद इतना के हर तकदीर से पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे के बता तेरी रज़ा क्या है"
आज महत्वाकांक्षी लोग इतने हो गए हैं कि उन्हें लगता है कि बड़े बड़े पद उन्हीं को मिल जाये। महत्वाकांक्षी होना ठीक है लेकिन योग्यता के पैमाने को भी देखना चाहिए कि हम कितने योग्य और संघर्षरत हैं। कोई जाति के नाम पर तो कोई धर्म के नाम पर रोना रोते हैं। राजनीति रूप से जुड़े लोगों को लगता है कि मैं कुछ बना ही नहीं है। इसलिए वे सीधे सीधे खुद के लिए न बोलकर जाति धर्म का ठीकरा फोड़कर दल विरोधी काम करते हैं। अगर किसी दल के लिए कितना समर्पण है, उसे बताना चाहिए। फलां जाति, धर्म के लोग अमुक दल में हाशिया पर जा रहे हैं। शीर्ष नेतृत्व की नज़र रहती है, आकलन रहता है कि किस लोकसभा ,विधानसभा, वार्ड से किसको कितना वोट मिला? कहाँ पराजित हुआ, कहाँ जीता? कौन सोशल मीडिया पर दल के समर्थन और विरोध में लिखता है।कुछ को भ्रम हो गया है कि वे ही सत्य व स्पष्टवादी लिखते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। सत्य और स्पष्ट शब्द जितना आसान लगता है, उतना अर्थ गूढ़ है। राजनीति के न सब भगवतिया देवी बन सकती है न मुन्नी रजक । संघर्ष में न दशरथ मांझी बन सकते हैं, न कर्पूरी ठाकुर। जुझारू में न सब लालू यादव बन सकते हैं न कुर्बानी में जगदेव बाबू। अगर कोई इतनी बुलंदियों को छू ले तो खुदा भी उसकी रज़ा पूछ लेते हैं।
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