मानसिक गुलामी से मुक्ति जरूरी है! - प्रसिद्ध यादव।

  


चाहे किसी को लाख आज़ादी मिल जाये ,लेकिन वो मानसिक रूप से गुलाम है तो उसके लिए आज़ादी कोई काम की नहीं है। कौन कौन सी मानसिक गुलामी है। आर्थिक आजादी,सामाजिक आजादी,सामाजिक न्याय आज भी दिवास्वप्न है।

लकीर के फ़क़ीर बने रहना ,सच बोलने की साहस न करना,लज्जा, संकोच करना ,बिना तर्क,एक्सपेरिमेंट को कोई चीज मान लेना, भेड़िए की चाल चलना ,किसी के हाँ में हाँ मिलाना, डरपोक, कायर होना आदि मानसिक गुलामी के लक्षण है।  ऐसे गुलामगिरी करने वाले से दूर रहना चाहिए । संघर्ष जीवन का वो हिस्सा है, जिससे मंजिल पाई जा सकती है। स्वतंत्र भारत में अम्बेडकर ,शहीद जगदेव बाबू, चंदापुरी  इसके प्रमाण हैं।इससे पूर्व गुलामगिरी से मुक्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने ज्ञान दिया था ।पूरी दुनिया इनके ज्ञान के काहिल हैं लेकिन हम आज भी मनुवादियों के चंगुल में है। पेरियार, ज्योति बा फुले ने तो गुलामगिरी पुस्तक ही लिख दिए थे, जिसे हर भारतीय को पढ़ना चाहिए।  ' गुलामगिरी ' पुस्तक की सार इस तरह है -   "इसमें उन्होंने धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं के साथ-साथ ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को नए सिरे से परिभाषित किया है. साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की है. 1873 में लिखी गई इस किताब का उद्देश्य दलितों और अस्पृश्यों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के झूठे दंभ से परिचित कराना था. इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फूले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकलकर, आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस मायने में यह किताब काफी महत्वपूर्ण है कि यहां इंसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कटघरे में खड़ा किया गया है.

‘गुलामगिरी’ दो पात्रों (धोंडिराव और ज्योतिराव) के सवाल-जवाबों के माध्यम से जाति और धर्म की तार्किक व्याख्या की कोशिश करती है. एक जगह हिंदू धर्म के मत्स्य अवतार की सच्चाई पर बात करते हुए ज्योतिराव धोंडिराव से कहते हैं - ‘उसके बारे में तू ही सोच कि मनुष्य और मछली की इन्द्रियों में, आहार में, मैथुन में और पैदा होने की प्रक्रिया में कितना अन्तर है? उसी प्रकार उनके मस्तिष्क में, मेधा में, कलेजे में ,फेफड़े में, अंतड़ियों में, गर्भ पालने-पोसने की जगह में, और प्रसूति होने के मार्ग में कितना चमत्कारिक अन्तर है... नारी स्वाभाविक रूप से एक ही बच्चे को जन्म देती है. लेकिन मछली सबसे पहले कई अण्डे देती है...कुछ मूर्ख लोगों ने मौका मिलते ही अपने प्राचीन ग्रन्थों में इस तरह की काल्पनिक कथाओं को घुसेड़ दिया होगा.’

अंग्रेजों के शासन से मुक्ति की इच्छा और संघर्ष के बारे में हमें बहुत कुछ पता है, लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंग्रेजों को ब्राह्मणशाही से मुक्तिदाता के तौर पर भी देख रहा था. ज्योतिबा फूले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इसके सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं समझते थे. दिलचस्प बात है कि वे अंग्रेजों के शासन को अत्याचारियों के शासन की तरह से भी नहीं देख रहे थे." स्वतंत्रता जिम्मेदारी लाती है। उत्तरदायित्व व्यक्ति को अधिकाधिक मुक्त होने में सहायता करता है। 

मालिक होने की चाह में गुलामी के बीज छिपे हैं, क्योंकि मालकियत किसी और पर निर्भर है। जब मालकियत-कब्जा किसी और पर निर्भर करता है तो हम अपनी मालकियत के मालिक कैसे हो सकते हैं। उदाहरण के लिए,  यदि कोई दस दासों का स्वामी है , तो उसका स्वामित्व इन दस दासों के होने पर ही निर्भर करता है। यदि वह इन दस दासों को खो देता है, तो वह अपना स्वामित्व भी खो देता है। उस कब्जे की चाबी उसके पास नहीं है, वह दस दासों के पास है। मालिक बनने की चाह गुलाम बना देती है। इस संसार में वही मालिक है जो किसी का मालिक नहीं बनना चाहता। यहाँ तक कि वस्तुएँ, निर्जीव वस्तुएँ भी हमारी स्वामी बन जाती हैं। वे हम पर शासन करने लगते हैं। मालिक मालिक हो जाता है। हमें समानता में विश्वास करना चाहिए।


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