भगवतीचरण वर्मा रचित ' चित्रलेखा' हिंदी साहित्य की अनुपम भेंट !

  पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है. इस उपन्यास में लेखक ने समाज में स्थापित नैतिक मूल्यों को चुनौती दी है और उनका पुनर्मूल्यांकन किया हैइस उपन्यास में कर्म और भोग को समानांतर रूप में दिखाया गया है. 


 भारतीय परंपरा और चिंतन की विराट संकल्पना में ऐसे ढेरों उपन्यासों की महती भूमिका रही है। मानक के तौर पर, हम ‘गोदान’ (प्रेमचंद), ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ (हजारी प्रसाद द्विवेदी) ‘मैला आंचल’ (फणीश्वरनाथ रेणु), ‘तमस’ (भीष्म साहनी), ‘काला जल’ (शानी), ‘बहती गंगा’ (रुद्र काशिकेय), ‘झूठा सच’ (यशपाल) के साथ भगवतीचरण वर्मा की ‘चित्रलेखा’ का स्मरण कर सकते हैं। इन चुनिंदा औपन्यासिक कृतियों की पड़ताल भी सामयिक बन जाती है। आज का स्तंभ ‘चित्रलेखा’ पर एकाग्र है, जो भगवतीचरण वर्मा की रचनाओं में मील स्तंभ माना जाता है। उपन्यास, पाप और पुण्य की समस्या को केंद्र में रखकर इन शाश्वत प्रश्नों का सामाजिक और व्यावहारिक समाधान खोजने में विन्यस्त है। बेहद लोकप्रिय और्  हिंदी सिनेमा की दुनिया में दो बार फिल्मायी जा चुकी इसकी कथा भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ एक सुंदर कथानक का इंद्रजाल बुनती है, जिसमें महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य- श्वेतांक और विशालदेव क्रमश: शासक बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। इनके साथ रहते हुए श्वेतांक और विशालदेव नितांत भिन्न जीवनानुभवों से गुजरते हैं, जिनके माध्यम से पाप और पुण्य की व्याख्या संभव होती है। एकबारगी देखने पर यह उपन्यास सामयिक प्रश्नों से अलग, एक दूसरी दुनिया के कौतूहल को सुलझाने वाला पाठ लगता है, जिसमें कथा-विन्यास, भाषा-कौशल तथा जीवन मूल्यों के लिए कुछ आध्यात्मिक ढंग का रहस्य बुना गया है। मगर पूरे उपन्यास से गुजरते हुए जब हम इसके दार्शनिक भावों से बार-बार टकराते हैं, तो समानांतर स्तर पर यह बात मुखरित होती है कि जीवन का समाहार केवल रोजनामचे में दर्ज होने वाली समस्याएं ही नहीं हैं, बल्कि मनुष्य बने रहने के भाव को समेटने वाले ढेरों शाश्वत प्रश्न भी कई दफा मन का कोना संशय से भरते हैं।

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