जब नीतीश ही एक दलित सीएम को जलील कर सकते हैं तो इनके समर्थकों को क्या कहना है?

 

   



आज भी वंचित समाज हिंदू धर्म की ढकोसला राज में सम्मान पूर्वक जीवन जीने के लिए तरस रहे हैं और तो और एक विधायक वो भी गणतंत्र दिवस के दिन अपने ही क्षेत्र में जातीय सूचक शब्दों की ज़हर पीने के लिए विवश हैं।  वो भी बिहार की राजधानी पटना में ,बाकी सुदूर इलाके में क्या हश्र होता होगा ,समझ सकते हैं। डूब मरना चाहिए सभ्य समाज के दम्भ भरने वाले को। जो आज वंचित समाज के हिन्दू सनातन धर्म के नाम पर चुतर पर ताली बजा रहे हैं उन्हें ऐसी घटनाओं से सबक लेने की जरूरत है । सामंत वर्ग वंचितों के वोट लेने के लिए झूठा प्यार दिखा सकते हैं लेकिन दिल में आज भी छुआछूत की भावना है। कुछ वंचित समाज के दलाल नेता इसकी चाकरी कर खुद राजनेता होने के भ्रम में जी रहे हैं।  दलितों के ख़िलाफ़ बढ़ रहा है जुल्म!
सीएम नीतीश कुमार ने मांझी को  कहा था कि उनकी मूर्खता की वजह से ही वो सीएम बने थे। नीतीश कुमार ने मांझी के साथ तू-तड़ाक की भाषा में भी बात की थी ।
जीतन राम मांझी ने  इसकी प्रतिक्रिया में लिखे थे  "नीतीश कुमार अगर आपको लगता है कि आपने मुझे मुख्यमंत्री बनाया यह आपकी भूल है। जब जदयू विधायकों ने लतियाना शुरू किया तो उसके डर से आप कुर्सी छोडकर भाग गए थे। अपनी नामर्दी छुपाने के लिए एक दलित पर ही वार कर सकतें है, औकात है तो ललन सिंह के खिलाफ बोलकर दिखाइए जो आपका ऑपरेशन कर रहे थे।"
जीतन राम मांझी ने सदन से बाहर आकर प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की थी और  उन्होंने कहा था , "मर्यादा को लांघ रहे सीएम नीतीश.. हम उनसे हर मामले में सीनियर। सदन में तू-तड़ाक से मुझसे बात की गई। नीतीश ने अपनी लाज बचाने के लिए सीधे-साधे आदमी को इस्तेमाल किया।" मांझी ने यह भी कहा, "मैं भुइयां-मुसहर हूं इसलिए सदन में जलील किया।"
1990 के दशक से उदार आर्थिक नीतियां लागू हुईं, तो दलितों की हालत और ख़राब होने लगी. डार्विन के योग्यतम की उत्तरजीविता और समाज के ऊंचे तबक़े के प्रति एक ख़ास लगाव की वजह से नए उदारीकरण ने दलितों को और भी नुक़सान पहुंचाया है।
इसकी वजह से आरक्षित नौकरियों और रोज़गार के दूसरे मौक़े कम हुए हैं. 1997 से 2007 के बीच के एक दशक में 197 लाख सरकारी नौकरियों में 18.7 लाख की कमी आई है. ये कुल सरकारी रोज़गार का 9.5 फ़ीसद है.
इसी अनुपात में दलितों के लिए आरक्षित नौकरियां भी घटी हैं. ग्रामीण इलाक़ों में दलितों और गैर दलितों के बीच सत्ता का असंतुलन, दलितों पर हो रहे ज़ुल्मों की तादाद बढ़ा रहा है. आज ऐसी घटनाओ की संख्या 50 हज़ार को छू रही है.
गुजरातः घोड़ी पर चढ़ने के 'जुर्म' में दलित की हत्या की गई थी।
उदार आर्थिक नीतियों की वजह से हिंदुत्व के उभार और फिर इसके सत्ता पर क़ाबिज़ होने की वजह से दलितों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म बढ़ रहा है. 2013 से 2017 के बीच ऐसी घटनाओं में 33 फ़ीसद की बढ़ोतरी देखी गई है. रोहित वेमुला, उना, भीम आर्मी और भीमा कोरेगांव की घटनाओं से ये बात एकदम साफ़ है.
दलितों के मौजूदा हालात से एकदम साफ़ है कि संवैधानिक उपाय, दलितों की दशा सुधारने में उतने असरदार नहीं साबित हुए हैं, जितनी उम्मीद थी. यहां तक कि छुआछूत को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद ये आज तक क़ायम है.
आरक्षण का मक़सद दलितों की भलाई और उनकी तरक़्क़ी था, लेकिन इसने गिने-चुने लोगों को फ़ायदा पहुंचाया है. इसकी वजह से ज़ाति-व्यवस्था के समर्थक इस ज़ातीय बंटवारे को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं, जो कि दलित हितों के लिए नुक़सानदेह है.
सत्ताधारी वर्ग की साज़िशों का नतीजा ये है कि आज दलित उधार की राजनीति में ही जुटे हुए हैं. दलितों के शिक्षित वर्ग को अपने समुदाय की मुश्किलों की फ़िक्र करनी चाहिए थी, लेकिन वो भी सिर्फ़ ज़ातीय पहचान को बढ़ावा देने और उसे बनाए रखने के लिए ही फ़िक्रमंद दिखते हैं.

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