परजीवी बनाती सरकारी खैरात ! सुप्रीम कोर्ट सख़्त।

       


मैं अपने ब्लॉग में पूर्व में ही इस मुफ्तखोरी के खिलाफ लिखा था । देश को रसातल में पहुंचाकर सत्तासीन होना क्या देशहित में है?

  सरकार अपनी लोकलुभावन कार्यों से देश की बड़ी आबादी को परजीवी बनाने पर तुली हुई है। मुफ्तखोरी की आदत आदमी को पंगु बना देता है। सरकार को नित्य नये रोजगार सृजन करनी चाहिए और देश की आधारभूत संरचना को बढ़ावा देना चाहिए । सभी के लिए शिक्षा एक समान व सर्वसुलभ बनाना चाहिए।  मुफ्त राशन के वितरण का कुप्रभाव है कि आज खेतिहर मजदूर नहीं मिलते हैं और इसका प्रतिकूल असर खेतीबारी सहित अन्य धंधों पर पड़ रहा है। 

किसी भी सरकार की कामयाबी इस बात से आंकी जाती है कि उसने नागरिकों के लिए काम का कैसा वातावरण बनाया और देश के आर्थिक विकास में उनका कितना योगदान सुनिश्चित किया है। मगर हमारे यहां गरीबी उन्मूलन के नाम पर चलाई जा रही खैरात की योजनाओं को उपलब्धि की तरह रेखांकित किया जाने लगा है। जब भी कोई चुनाव आता है, तो हर राजनीतिक दल बढ़-चढ़ कर मुफ्त की योजनाओं की फेहरिश्त पेश करना शुरू कर देता है।


इस पर उचित ही सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी जाहिर की है। अदालत ने कहा कि वोट के लालच में मुफ्तखोरों और परजीवियों का एक वर्ग तैयार हो रहा है। लोगों को बिना किसी काम के मुफ्त राशन और पैसा देना सही नहीं है। सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि वह इन लोगों को मुख्यधारा में लाए, ताकि वे भी देश के विकास में योगदान दे सकें। पहले भी मुफ्त की योजनाओं को लेकर गुहार लगाई गई थी, तब अदालत ने कहा था कि चुनाव में ऐसी घोषणाओं से परहेज किया जाना चाहिए। मगर किसी भी दल ने उस नसीहत को गंभीरता से नहीं लिय। कोई भी सरकार अपने नागरिकों को भूख से नहीं मरने दे सकती, इसीलिए भोजन का अधिकार कानून लाया गया था। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि देश की एक बड़ी आबादी को इस तरह मुफ्तखोर और अकर्मण्य बना दिया जाए। यह व्यवस्था तभी होनी चाहिए, जब लोगों को काम न मिल सके। हर परिवार को काम देने की गारंटी के साथ मनरेगा कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसमें कम से कम सौ दिन का काम देने की गारंटी दी गई थी। मगर उस कार्यक्रम की स्थिति यह है कि हर वर्ष उसमें पंजीकृत लोगों की कटौती हो रही है।


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