गुजरते दिन मुफलिसी में पता चलता है । - प्रो प्रसिद्ध कुमार।

  आज मैं अपने जन्मदिन पर छोटी सी कविता लिखा हूँ।


जब एक एक रोटी के लिए पसीने छूट जाते हैं।

तन उघार, जार - जार ,सर पर छत नहीं ,खुली आसमान 

तन्हाइयों में दिन रात गुजरता है।

गुजरते दिन मुफलिसी में पता चलता है ।

न खेलने की फुर्सत ,न पढ़ाई का समय 

सुबह से शाम तक काम ही काम 

बचपन में ही घर चलाने की बोझ 

यौवन कब आया पता ही नहीं चलता है।

गुजरते दिन मुफलिसी में पता चलता है ।

न मिलती हक भर कमाई ,न दो जून रोटी , न दवाई 

असमय चले जाते काल के गाल में ।

दो गज़ क़फ़न भी मयस्सर न होता है।

गुजरते दिन मुफलिसी में पता चलता है ।

न इसकी कहीं आवाज़ गूंजती 

न कोई इसका फरियाद करता है।

गुजरते दिन मुफलिसी में पता चलता है ।

सब मस्त हैं अपने मस्ती में 

चूर है अपनी हस्ती में 

चूल हिलाओ बेईमानों की 

आग लगाओ इसकी बस्ती में।

नर पिचाश ,नरभक्षी को 

क्यों नहीं पहचानता है ?

गुजरते दिन मुफलिसी में पता चलता है ।


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