जज के यहां नोट जल रहे हैं , कितना न्याय मिल रहा है ?
इंजीनियर के यहां नोट, डॉक्टर के यहां, पुलिस के यहां ,अधिकारी के यहां ,राजनेताओं के यहां नोट। अगर कोई अभावग्रस्त है तो किसान ,मजदूर, नवजवान, बेरोजगार।
कोलोजियन सिस्टम से बहाल जजों से न्याय का उम्मीद क्या हो सकता है। सरकार अखिल भारतीय न्यायिक सेवा गठन कर नहीं रही है, क्योंकि इससे बहुजन भी पर्याप्त मात्रा में जज बन जाएंगे। सरकार की सभी स्तम्भों पर मुठ्ठीभर लोगों का कब्जा रहे और बाकी लोग धर्म के अफ़ीम खाकर पगला बना रहे। ई बोकवन को कौन समझा सकता है? दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के आवास में 14 मार्च 2025 की रात लगी आग ने एक ऐसी 'आग' जलाई, जो अब सिर्फ ईंट-पत्थरों को नहीं, बल्कि देश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विश्वसनीयता को भी झुलसा रही है। इस घटना के बाद सामने आए तथ्य- खासकर अधजले नोटों से भरीं कथित बोरियों ने न केवल सनसनी फैलाई, बल्कि कई अनुत्तरित सवालों को जन्म दिया। सबसे बड़ा सवाल यह है कि दिल्ली पुलिस कमिश्नर को मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय से संपर्क करने में 16 घंटे से ज्यादा का वक्त क्यों लगा? आग रात 11:30 बजे लगी, लेकिन कमिश्नर ने अगले दिन शाम 4:50 बजे ही जस्टिस उपाध्याय को सूचित किया। क्या रात में सूचना देना उचित नहीं था? क्या सुबह भी यह देरी जायज थी? या फिर पुलिस को खुद इस घटना की जानकारी देर से मिली? इन सवालों का जवाब अभी तक हवा में लटका हुआ है। जस्टिस वर्मा का नाम पहले भी 97 करोड़ के घोटाले में नाम आ चुका है। सीबीआई ने इस मामले में 12 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी। जज वर्मा 10वें आरोपी के रूप में सूचीबद्ध थे। उस समय वह सिम्भौली शुगर मिल्स लि. के नॉन-एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर के रूप में कार्यरत थे। तब ओरिएंटर बैंक ऑफ कॉमर्स ने आरोप लगाया था कि किसानों के लिए जारी किए गए 97.95 करोड़ रुपए के ऋण का दुरुपयोग किया गया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रकाशित दस्तावेज और वीडियो इस मामले में पारदर्शिता लाने का प्रयास तो करते हैं, मगर वे और सवाल भी खड़े करते हैं। दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट में दावा है कि आग लगने के बाद सुबह एक सुरक्षा गार्ड ने मलबे में अधजला सामान और 4-5 बोरियां नोटों की देखीं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं कि ये नोट किसने हटाए, कब हटाए गए और सबसे जरूरी कमरे को तुरंत सील क्यों नहीं किया गया? सबूतों के साथ छेड़छाड़ की आशंका को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? दूसरी ओर, जस्टिस वर्मा का कहना है कि वह और उनकी पत्नी घटना के वक्त भोपाल में थे और उन्हें नकदी की कोई जानकारी नहीं। उन्होंने दावों को खारिज करते हुए कहा कि न तो उनके परिवार को ऐसी बोरियां दिखाई गईं, न ही उनके किसी कर्मचारी ने कुछ हटाया। फिर ये नोट कहां से आए? यह सवाल जांच के अभाव में और गहरा होता जा रहा है।
पुलिस और जज के बयानों में विरोधाभास भी कम परेशान करने वाला नहीं। पुलिस का कहना है कि स्टोर रूम बंद रहता था, जबकि जस्टिस वर्मा का दावा है कि यह सभी के लिए सुलभ था और अप्रयुक्त सामान रखने के लिए इस्तेमाल होता था। यह कमरा उनके मुख्य आवास से अलग था। मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय की प्रारंभिक जांच में बाहरी व्यक्ति की पहुंच से इनकार किया गया है। तो क्या यह कोई आंतरिक साजिश थी? इसकी तह तक जाने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने तीन सदस्यीय समिति गठित की है, जो जस्टिस वर्मा के कॉल डिटेल्स और इंटरनेट डेटा की भी पड़ताल करेगी। यह पहली बार नहीं है जब न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी कोई घटना ने सवाल खड़े किए हों। यह पहला मौका नहीं है जब न्यायपालिका से जुड़े विवाद सुर्खियों में आए हों। कुछ अन्य घटनाएं भी व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं:
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