पोथी पढ़ी - पढ़ी जग मुआ ,पंडित भया न कोय !
कबीरदास और रैदास ने किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन उनकी ज्ञान परंपरा में शामिल है.आज इनकी रचनाएं विश्विद्यालयों ,कॉलेजों ,विद्यालयों में पढ़ाई जाती है। वहां पढ़ने पढ़ाने के बाद भी आदमी को ज्ञान नहीं हुआ तो वो पढ़ाई सिर्फ़ आर्थिक उपार्जन का मात्र साधन बनकर रह गया है।
कबीरदास जी ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी.
उन्होंने अपने सामाजिक अनुभवों, लोक व्यवहार, और मानव मूल्यों के आधार पर ज्ञान अर्जित किया था. इन्होंने अंधविश्वास, व्यक्ति पूजा, पाखंड, और ढोंग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी. वे भोजपुरी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमार्गी उपशाखा के महान कवि थे.
उनकी कविताएँ बुनाई से जुड़े रूपकों से भरी हुई हैं.
रैदास जी ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है.
उनकी वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना, और मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी.
उनके भजनों और उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का समाधान हो जाता था.
उन्हें पारंपरिक रूप से कबीर का युवा समकालीन माना जाता है.
जीवन चारि दिवस का मेला रे। बांभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।। मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजति बाहर चेला रे। लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढिंग केला रे।। पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे। जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न अधेला रे।। पुन्य -पाप या पुनर्जन्म का , बांभन दीन्हा खेला रे। स्वर्ग -नरक, बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य या चेला रे।। जितना दान देवे गे जैसा , वैसा निकरै तेला रे। बांभन जाति सभी बहकावे , जन्ह तंह मचै बबेला रे।। छोड़ि के बांभन आ संग मेरे , कह विद्रोहि अकेला रे।इसी गीत के कारण पाखंडियों ने संत रविदास की हत्या कर दी थी ।
सुकरात ने कुछ भी सिखाने और वास्तव में कुछ भी महत्वपूर्ण जानने का दावा नहीं किया, बल्कि केवल तत्काल मानवीय प्रश्नों जैसे, "सद्गुण क्या है?" और "न्याय क्या है?" के उत्तर खोजने और दूसरों को भी ऐसा करने में मदद करने का दावा किया। दार्शनिकता की उनकी शैली कुछ मानवीय उत्कृष्टता के बारे में सार्वजनिक बातचीत में शामिल होना और कुशल प्रश्नों के माध्यम से यह दिखाना था कि उनके वार्ताकार नहीं जानते कि वे किस बारे में बात कर रहे थे। इन मुठभेड़ों के नकारात्मक परिणामों के बावजूद, सुकरात के पास कुछ व्यापक सकारात्मक विचार थे, जिनमें यह भी शामिल था कि सद्गुण ज्ञान का एक रूप है और "आत्मा की देखभाल" सद्गुण की खेती सबसे महत्वपूर्ण मानवीय दायित्व है।
आज का इतिहास:पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है यह बताने वाले गैलीलियो गैलिली पर मुकदमा चला; इसी कारण उनकी जान गई
पोलैंड के एक गणितज्ञ थे निकोलस कॉपर्निकस। उन्होंने सबसे पहले कहा था कि पृथ्वी सूरज के चक्कर लगाती है, लेकिन उन्होंने इस बात को सिर्फ कहा, लिखा नहीं। लिखा इसलिए नहीं, क्योंकि उन्हें चर्च का डर था। कॉपर्निकस के निधन के 21 साल बाद 15 फरवरी 1564 को इटली के पीसा में जन्म हुआ- गैलीलियो गैलिली का। इन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम था 'डायलॉग'। इस किताब में गैलीलियो ने लिखकर दावा किया कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है।
यही बात चर्च को बुरी लग गई। गैलीलियो पर मुकदमा ठोक दिया गया। अपनी लिखी बातों को गलत बताने के लिए उन्हें रोम बुलाया गया। 1634 को गैलीलियो रोम की चर्च के सामने पेश हुए थे। गैलीलियो उस वक्त अपने दावे पर अड़े रहे और कहते रहे कि उन्होंने जो लिखा है, वो सही है। लिहाजा उन्हें जेल में डाल दिया गया।
बाद में उन्होंने चर्च के सामने अपने लिखे के लिए माफी मांग ली। उनकी सजा कम कर दी गई, लेकिन उन्हें घर में ही नजरबंद कर दिया गया। उनकी किताबों को छापने पर रोक लगा दी गई। नजरबंदी के दौरान ही 8 जनवरी 1642 को उनकी मौत हो गई।
गैलीलियो की मौत के करीब 350 साल बाद अक्टूबर 1992 को पोप जॉन पॉल ने माना कि चर्च गलत था और गैलीलियो सही थे। उनका कहना था कि चर्च ने ठीक नहीं किया। स्टीफन हॉकिंग्स और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक उन्हें "फादर ऑफ मॉडर्न साइंस' कहा करते ।
पूरी दुनिया में पाखंड के खिलाफ लिखने बोलने पर पाबंदी थी और यदा कदा आज भी है। क्या इनके भय से कोई बोलना लिखना थोड़े छोड़ दिया है।हर युग में हमारे महापुरुषों ने साहस के साथ पाखंडियों का विरोध किया है।
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