दलबदलू - अवसरवादी पाखंड ( कविता ) -प्रो प्रसिद्ध कुमार।
बिहार में चुनावी बयार चली, टिकट की आस में,
दलबदल का खेल निराला, हर खासो-आम में।
सत्तालोभी, बेअस्तित्व, बिना जनाधार के,
छल-कपट इनका गहरा, समझ न पाए हर कोई।
जिस थाली में खाते, उसी में करते छेद,
इनकी अवसरवादिता, क्या तुम समझोगे भेद?
राजनीतिक अवसरवाद इनका, नित नया रूप धारे,
पूर्व निष्ठा, बयान बदले, पलटी मारें हर बार।
पाला बदलना आम है, पर अतीत को झुठलाना,
सत्ता के लिए नीचता है, ये कब समझेंगे जमाना?
नैतिक पाखंड इनका, अतिशय गहरा है,
जिस "विनाश राज" का हिस्सा थे, अब उसे ही कोस रहे।
क्या तब थे अनजान, या जानबूझकर मौन रहे?
आज बुरा कहने वाले, तब क्यों थे मौन सहे?
जनता के प्रति जवाबदेही, इनका शून्य है,
अपने ही कार्यकाल को कहें "विनाश" ये गुण है।
जब थे सत्ता में, तब क्यों न किया प्रतिकार?
अपनी ही जिम्मेदारियों से, अब क्यों भागे हर बार?
विचारधारा का अभाव, ये इनकी पहचान है,
सिद्धांतों से परे, बस सत्ता ही इनकी जान है।
निष्ठा बदलते क्षण भर में, पद की लालच में,
इनके हृदय में न कोई दृढ़ विचार, न कोई धर्म है।
सत्ता के लिए समझौता, हर हद पार करें,
नए दल में जा, पुराने साथियों को भी वार करें।
एजेंडा नया, नीति नई, सब स्वीकार है,
इनके लिए बस कुर्सी ही, अंतिम सत्कार है।
ऐ दल, ऐ जनता, रहो इनसे सावधान,
ये दलबदलू हैं, करते सबका अपमान।
इनकी चालों को पहचानो, न देना इनको स्थान,
वरना ये करेंगे फिर से, तुम्हारा ही नुकसान।
Comments
Post a Comment