इटावा की घटना: क्या यही है इक्कीसवीं सदी का 'सनातन धर्म'?

     



इटावा में वंचित समाज से आने वाले यादव कथावाचकों के साथ चोटी काटने जैसी अमानवीय घटना ने एक बार फिर समाज में गहरे तक पैठी जातिगत गैर-बराबरी और मनुवादी सोच को उजागर कर दिया है। यह घटना सिर्फ एक व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि उन सभी दावों पर करारा प्रहार है जो इक्कीसवीं सदी में भारत को आधुनिक और समानतावादी होने का दम भरते हैं। क्या सचमुच यही हमारा "हिन्दू सनातन धर्म" है, जहां ज्ञान और भक्ति का मार्ग भी जाति की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है?

जिस देश में ज्योतिबा फुले और बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जैसे महान सुधारकों ने आजीवन जातिविहीन समाज का सपना देखा और उसके लिए संघर्ष किया, वहां आज भी इस तरह की घटनाएं यह दर्शाती हैं कि उनके सपने चकनाचूर हो रहे हैं। यह सिर्फ एक संयोग नहीं हो सकता कि वंचित समाजों पर होने वाले इस तरह के अत्याचारों में लगातार वृद्धि देखने को मिल रही है।

जब देश में सत्ताधारी दल और उससे जुड़े संगठन लगातार हिंदुत्व और सनातन धर्म की बात करते हैं, तब ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या उनकी विचारधारा इस तरह की गैर-बराबरी को बढ़ावा दे रही है? भाजपा और आरएसएस जैसे संगठनों पर आरोप लगते रहे हैं कि उनकी नीतियां और उनका मौन ऐसी घटनाओं को पनपने का अवसर देते हैं। यदि वे सचमुच समरस समाज के पक्षधर हैं, तो उन्हें इस तरह की घटनाओं पर खुलकर और सख्ती से अपनी बात रखनी चाहिए और दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित करनी चाहिए।

धार्मिक पाखंड और जातिगत श्रेष्ठता का दंभ समाज को खोखला कर रहा है। धर्म के नाम पर किसी भी व्यक्ति का अपमान या उत्पीड़न करना न तो नैतिक है और न ही मानवीय। यह समय है जब वंचित समाज को जागना होगा। हमें धर्म और जाति के नाम पर होने वाले पाखंडों से खुद को मुक्त करना होगा। अपनी पहचान को सिर्फ अपनी जाति या धर्म तक सीमित रखने के बजाय, हमें मानवता, समानता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित एक नए समाज के निर्माण की दिशा में एकजुट होना होगा।

यह घटना एक चेतावनी है। यदि हम अभी नहीं जागे, तो मनुवादी ताकतें हमें फिर से उसी दमनकारी व्यवस्था में धकेल देंगी जिससे निकलने के लिए हमारे पूर्वजों ने पीढ़ियों तक संघर्ष किया। आइए, हम सब मिलकर इस जातिवादी सोच और धार्मिक पाखंड के खिलाफ एक बुलंद आवाज बनें।

जागो वंचितों, और जाति, धर्म, पाखंड से मुक्त हो!



 

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