एन. सी. घोष: एक रंगमंच की मूक व्यथा ( कविता ) -प्रो प्रसिद्ध कुमार।
मैं एन. सी. घोष, एक नाम रहा,
अब बस यादों का धुआँ रहा।
बिहटा-सगुना की सड़क बनी,
मेरी हस्ती उसी में दफ़न हुई।
मेरे आँगन में, कला खिली,
कितने हुनर की लहर चली।
दर्शकों की तालियाँ गूँजी यहाँ,
तकदीरें भी थीं खिलती यहाँ।
आज विकास की अंधी दौड़,
मिटा गई मेरा हर एक मोड़।
निष्ठुर आँखों ने देखा मुझे ढहते,
कलाकार और दर्शक, सब सहते।
नयन से आँसू, मेरी बर्बादी के,
यकीन है, निकले होंगे लाखों के।
एक रंगमंच, एक संस्थान,
आज खुद एक नाटक, मूक, बेजान।
मेरी चीख शायद अनसुनी रही,
बुलडोजर की ज़ालिम चली।
मेरा जिस्म भले ही मिट गया,
पर आत्मा मेरी अमर रहा।
कोई पुण्यतिथि न मनाएगा,
पर मेरी बर्बादी पर दिल रोएगा।
निशान मिटे, पर नाम नहीं,
कलाकारों का घर, मेरा धाम, मिटेगा नहीं।
उनका हुनर, जो मुझमें पला,
सदैव रहेगा, न होगा फ़ना।
मैं एन. सी. घोष, एक मूक व्यथा,
कला की अमर, सच्ची कथा।
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