एन. सी. घोष: एक खंडहर की मार्मिक पुकार (कविता )- प्रो प्रसिद्ध कुमार।
मैं एन. सी. घोष हूँ,
काल के चक्र में पिसता हुआ,
आज जमींदोज होने के कगार पर खड़ा हूँ।
मेरी हर ईंट, हर पत्थर गवाही देता है
उस गौरवशाली अतीत की,
जब मैं रंगकर्मियों को तराशता था,
आर्यभट्ट की नगरी खगौल में।
नालंदा और विक्रमशिला की तरह,
मैं भी अब खंडहर में तब्दील होने को हूँ।
दिल्ली के मंडी हाउस की तरह,
मैंने भी अनगिनत प्रतिभाओं को मंच दिया,
उन्हें रोशनी दी, पहचान दी।
मुझे अंग्रेजों ने बनाया था,
रेलवे ने मुझे संरक्षित किया था,
सोचा था मेरा अस्तित्व अजर-अमर रहेगा।
पर आज, जब मेरे खंड-खंड हो रहे हैं,
तो तोड़ने वाले बुलडोजर भी काँप उठे हैं,
मेरी मजबूती का अंदाजा मेरी अस्थियों से लगा लेना।
मैं शतायु था, पर अभी भी यौवन कायम था मुझमें,
कला और संस्कृति की लौ अभी भी जल रही थी।
सूत्रधार, मंथन, एकजुट...
कितनी ही नाट्य संस्थाओं के कलाकारों ने
मेरी अस्थियों पर आकर श्रद्धांजलि दी है,
उनके आँसुओं में मेरी गाथा लिखी है।
मेरे बगल के मंदिर तोड़े गए थे,
पर उन्हें तोड़ने से पहले ही बना दिया गया था नए सिरे से।
काश! यह सौभाग्य मुझे भी मिलता,
काश! मेरे पुनर्निर्माण का कोई काम होता।
शिवाला, नेउरा, कंहौली, पैनाल जैसे ..
इनकी तरह मेरा भाग्य नहीं था,
कि एलिवेटेड रोड के रास्ते ही बदल दिए जाते
मुझे बचाने के लिए।
मेरी नियति में शायद विध्वंस ही लिखा था,
एक खामोश चीख हूँ मैं,
जो खंडहरों से निकलकर,
अतीत की गूँज बनकर रह गई है।
क्या मेरी कहानी सिर्फ एक स्मृति बन जाएगी,
या कोई सुनेगा मेरी इस अंतिम पुकार को?
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