भर्तृहरि के 'शतकत्रयी' (श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक) उनके जीवन के अनुभवों का सार हैं।

    


 इनमें से श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक, यद्यपि एक ही कवि द्वारा रचित हैं, पर विषय-वस्तु और दृष्टिकोण में एक-दूसरे के विपरीत प्रतीत होते हैं, जो भर्तृहरि के जीवन के दो भिन्न आयामों को दर्शाते हैं।

यहाँ इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है:

1. विषय-वस्तु:

श्रृंगार शतक:

यह प्रेम, सौंदर्य, यौवन और कामुकता पर केंद्रित है।

इसमें स्त्रियों के रूप, हावभाव, कटाक्ष और उनके आकर्षण का विस्तृत और मार्मिक वर्णन मिलता है।

भर्तृहरि ने नवयौवन के समय रसिकों के लिए स्त्री के प्रेमपूर्ण मुख को सर्वोत्तम दर्शनीय वस्तु बताया है।

यह सांसारिक भोगों और कामनाओं के प्रति मानवीय आकर्षण को दर्शाता है।

इसमें प्रेम के सुख और पीड़ा दोनों पक्षों को उजागर किया गया है।

इसमें सांसारिक भोग और वैराग्य के बीच अनिश्चय की मनोवृत्ति का चित्रण हुआ है।

वैराग्य शतक:

यह वैराग्य, संसार की नश्वरता, तृष्णा की निंदा और संतोष के महत्व पर केंद्रित है।

इसमें सांसारिक आकर्षणों, भोगों और मोह-माया के प्रति उदासीनता का चित्रण है।

भर्तृहरि ने भोगों को न भोगने की बात कही है, बल्कि यह बताया है कि भोग ही हमें भोग लेते हैं।

यह धन, यश और इंद्रिय सुख को नश्वर बताता है और सच्चा सुख आत्मज्ञान और त्याग में मानता है।

कवि की कामना है कि किसी पुण्यमय अरण्य में शिव-शिव का उच्चारण करते हुए उनका समय बीत जाए।

यह वैराग्य की निश्चित और दृढ़ मनोवृत्ति को दर्शाता है।

2. दार्शनिक दृष्टिकोण:

श्रृंगार शतक:

यह सांसारिक जीवन, मानवीय भावनाओं और लौकिक सुखों के प्रति एक गहन रुचि को दर्शाता है।

इसमें जीवन की यथार्थता का वर्णन मिलता है, जिसमें प्रेम और कामना का महत्वपूर्ण स्थान है।

वैराग्य शतक:

यह सांसारिक मोह-माया से विरक्ति और आध्यात्मिक शांति की ओर झुकाव को दर्शाता है।

इसमें जीवन के क्षणभंगुर होने का बोध और परम सत्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर होने का दार्शनिक विचार है।

यह दर्शाता है कि जब विषय हमें छोड़ेंगे तो महान दुख होगा, और यदि हम उन्हें स्वयं छोड़ दें तो असीम सुख और शांति मिलेगी।

3. व्यक्तिगत अनुभव का प्रभाव:

माना जाता है कि भर्तृहरि के निजी जीवन के अनुभवों ने इन शतकों की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

श्रृंगार शतक उनके जीवन के उस चरण का प्रतीक हो सकता है जब वे सांसारिक सुखों और प्रेम में लिप्त थे, शायद एक राजा के रूप में।

वैराग्य शतक उनके जीवन में आए उस मोड़ को दर्शाता है जब उन्हें संसार की असारता का बोध हुआ और वे वैराग्य मार्ग पर अग्रसर हुए। यह उनके महायोगी गोरखनाथ के शिष्य बनने और योग परंपरा में शामिल होने का परिणाम भी माना जाता है।

4. काव्य-शैली और रस:

श्रृंगार शतक: इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता है। अलंकारों और छंदों का प्रयोग प्रेम के सौंदर्य को जीवंत करने के लिए किया गया है।

वैराग्य शतक: इसमें शांत रस की प्रधानता है। इसमें दार्शनिकता और उपदेशात्मक शैली का अद्भुत समन्वय है, जो पाठक को वैराग्य की ओर प्रेरित करता है।

भर्तृहरि के श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक उनके जीवन के दो विपरीत ध्रुवों को दर्शाते हैं - एक ओर सांसारिक सुखों के प्रति तीव्र आकर्षण और दूसरी ओर उन्हीं सुखों से पूर्ण विरक्ति। ये दोनों शतक न केवल भर्तृहरि के व्यक्तिगत जीवन के विकास को दर्शाते हैं, बल्कि मानव जीवन के सार्वभौमिक अनुभवों - भोग और त्याग - का भी सुंदर चित्रण करते हैं। ये भारतीय साहित्य में प्रेम और वैराग्य के दर्शन को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कृतियां 

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