सरकार का निजीकरण: एक व्यंग्यात्मक विचार या कड़वी सच्चाई?
मेरा यह विचार कि क्यों न सरकार को ही निजीकरण कर दिया जाए, सुनने में भले ही व्यंग्यात्मक लगे, लेकिन यह उन कड़वी सच्चाइयों पर प्रहार करता है जो हमारे देश में चल रही हैं। जब रेलवे, एयरपोर्ट और BSNL जैसे सार्वजनिक उपक्रमों को 'व्यापार दृष्टिकोण' से देखा जा सकता है, तो फिर देश चलाने वाली सरकार को क्यों नहीं? आखिर, अगर 'राष्ट्रहित' का मतलब सिर्फ मुनाफाखोरी हो गया है, तो इस मुनाफे की दौड़ में सरकार क्यों पीछे रहे?
मेरा यह तर्क बड़ा सीधा और आकर्षक है: विधायक 15-20 हज़ार में, सांसद 30 हज़ार में, मंत्री 35 हज़ार में और मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री 50 हज़ार में मिल जाएंगे! और तो और, ये सब पढ़े-लिखे, IITian, प्रबंधक, PhD धारक और स्वच्छ छवि वाले होंगे! सोचिए, कितनी बचत होगी! अरबों रुपये देश की तिजोरी में वापस आएंगे और नेताओं में 'कान पकड़कर बाहर' किए जाने का डर भी रहेगा। यानी, ईमानदारी का इंजेक्शन भी लग जाएगा।
यह बात सुनने में जितनी हास्यास्पद है, उतनी ही सोचने पर मजबूर करती है। जब देश की जनता को अक्सर यह सुनने को मिलता है कि सरकारी संस्थाएं घाटे में चल रही हैं और उन्हें निजी हाथों में देना ही एकमात्र उपाय है, तो फिर सरकार, जो खुद एक विशालकाय संस्था है, इस नियम से बाहर क्यों? अगर लाभ-हानि का सिद्धांत हर जगह लागू होता है, तो सत्ता के गलियारों में बैठे हमारे जन-प्रतिनिधियों की "सेवा" का मूल्य क्यों नहीं तय होता? लाखों-करोड़ों रुपये जो सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राज्यपाल पर देश की संपदा के नाम पर लुटाए जा रहे हैं, क्या वह 'राष्ट्रहित' में है या कुछ खास लोगों के 'हित' में?
दरअसल, यह एक बड़ा विरोधाभास है। एक तरफ हम लोकतंत्र में कल्याणकारी नीतियों की बात करते हैं, जहां मुनाफाखोरी से ज्यादा जनहित को प्राथमिकता दी जाती है। दूसरी तरफ, मौजूदा बजट और सरकार की 'नीयत' देखकर ऐसा लगता है कि देश को एक मुनाफाखोर व्यापारी चला रहा है, न कि जनता का प्रतिनिधि। "राष्ट्रहित" के नाम पर सत्ता में आई सरकार के बजट में जब रक्षा बजट का जिक्र तक नहीं होता, और प्रधानमंत्री किसी पेशेवर की तरह 86 बार तालियां बजाते नजर आते हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे 'अच्छे दिन' वाकई आ गए हैं?
मेरी यह बात बिल्कुल सही है कि लाल बहादुर शास्त्री और सरदार पटेल जैसे नेताओं से लफ्फाजी में भले ही तुलना कर ली जाए, लेकिन उनके दिखाए रास्ते पर एक कदम भी चलना आज के 'राष्ट्रहित' के लिए सौभाग्य की बात होगी। क्या हमें ऐसे नेताओं की ज़रूरत नहीं है जो वाकई देश के लिए जिएं और काम करें, बजाय इसके कि अपने पदों को एक व्यावसायिक उद्यम की तरह चलाएं?
शायद सरकार का निजीकरण करना एक अतिवादी विचार हो, लेकिन यह उस व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है जहां पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है, जहां जनता का पैसा बेवजह लुटाया जाता है और जहां 'राष्ट्रहित' का नारा सिर्फ वोट बटोरने का एक जरिया बनकर रह गया है। अगर हम वाकई चाहते हैं कि देश में 'अच्छे दिन' आएं, तो हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि क्या हम एक ऐसी सरकार चाहते हैं जो सिर्फ व्यापार करे, या एक ऐसी सरकार जो सच्चे अर्थों में जनता का कल्याण करे।
आपका इस विचार पर क्या मत है? क्या आप भी मानते हैं कि सरकार को 'व्यापार दृष्टिकोण' से देखा जाना चाहिए?
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