तेजस्वी यादव का मीडिया पर हमला: क्या भारतीय मीडिया वाकई 'बिका हुआ' है?

  


बेशर्म व बिकाऊ जैसे शब्दों का प्रयोग किये। 

हाल ही पद्मश्री सम्मानित एक वरिष्ठ पत्रकार अपने कॉलम में लगातार नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी पर आलेख लिखकर अपने आकाओं को खुश रखने की चेष्टा कर रहे हैं लेकिन बिहार में बढ़ते भ्रष्टाचार, अपराध, हत्या पर एक लाइन नही लिखते हैं। कैसे इस बुढापे में भी अंतरात्मा मर गया, वो जाने ।


हाल ही में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव ने भारतीय मीडिया पर तीखा हमला बोलते हुए आरोप लगाया कि "विपक्ष की ख़बर नहीं छापती कायर अखबार, जल्द ही बायकॉट करेंगे।" यह बयान भारतीय मीडिया के मौजूदा परिदृश्य पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है: क्या मीडिया वाकई निष्पक्ष नहीं रहा है? क्या वह सत्ता प्रतिष्ठान का पक्षधर हो गया है और विपक्ष की आवाज को दबा रहा है?


तेजस्वी के बयान और मीडिया की वास्तविकता


तेजस्वी यादव का यह बयान कोई नया नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से, कई विपक्षी नेता और यहाँ तक कि कुछ स्वतंत्र पत्रकार भी भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से पर सरकार समर्थक होने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर सवाल उठाने से बचने का आरोप लगाते रहे हैं।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि मीडिया की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। इसका काम सरकार से सवाल करना, जनता को सूचित करना और विभिन्न दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करना है। जब मीडिया इस भूमिका से भटकता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है।

तेजस्वी के आरोपों के कुछ संभावित कारण और संबंधित तथ्य इस प्रकार हैं:

चुनिंदा कवरेज: कई बार यह देखा गया है कि मुख्यधारा के मीडिया आउटलेट्स कुछ खास राजनीतिक दलों या नेताओं की खबरों को अधिक प्रमुखता देते हैं, जबकि विपक्ष की गतिविधियों या बयानों को कम कवरेज मिलती है या उन्हें नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

बहसों का स्तर: प्राइम टाइम डिबेट्स में अक्सर एकतरफा बहसें देखने को मिलती हैं, जहाँ सरकारी नीतियों का बचाव करने वाले पैनलिस्टों को अधिक समय दिया जाता है और आलोचकों को बाधित किया जाता है।

सरकारी विज्ञापन पर निर्भरता: मीडिया हाउसेस की आय का एक बड़ा हिस्सा सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर करता है। यह निर्भरता कभी-कभी स्वतंत्र पत्रकारिता को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि विज्ञापनदाता के हितों के खिलाफ जाना मुश्किल हो सकता है।


क्या चल रहा है 'पेड न्यूज'?


तेजस्वी यादव के बयान के साथ 'पेड न्यूज' का मुद्दा भी उभर कर आता है। पेड न्यूज वह स्थिति है जहाँ समाचार या विश्लेषण के रूप में कुछ सामग्री प्रकाशित की जाती है, लेकिन वास्तव में वह एक भुगतान किया गया विज्ञापन होता है। यह पत्रकारिता नैतिकता का गंभीर उल्लंघन है क्योंकि यह पाठकों या दर्शकों को गुमराह करता है।

भारत में पेड न्यूज का मुद्दा नया नहीं है और इसे कई रिपोर्टों में उजागर किया गया है:

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) की रिपोर्टें: प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने अतीत में कई चुनावों के दौरान पेड न्यूज की घटनाओं की जांच की है और इसे एक गंभीर समस्या बताया है।

चुनाव आयोग की चिंताएं: भारत निर्वाचन आयोग ने भी चुनावों के दौरान पेड न्यूज के प्रसार पर चिंता व्यक्त की है और इसे रोकने के लिए कदम उठाए हैं।

जर्नलिज्म में पारदर्शिता की कमी: जब किसी समाचार रिपोर्ट के पीछे वित्तीय लेन-देन होता है, तो यह पत्रकारिता की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को कम करता है।

हालांकि, यह कहना अनुचित होगा कि सभी भारतीय मीडिया 'बिका हुआ' है। आज भी कई पत्रकार और मीडिया संस्थान निष्पक्ष और साहसी पत्रकारिता कर रहे हैं। वे सत्ता से सवाल पूछ रहे हैं और जनहित के मुद्दों को उठा रहे हैं। हालांकि, उनकी आवाज अक्सर मुख्यधारा के शोर में दब जाती है।


आगे की राह: क्या बायकॉट समाधान है?


तेजस्वी यादव का मीडिया बायकॉट करने का आह्वान एक प्रतीकात्मक कदम हो सकता है, जो मीडिया घरानों पर दबाव डालने की कोशिश करता है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह कितना प्रभावी होगा।

इसके बजाय, एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह महत्वपूर्ण है कि:

मीडिया अपनी नैतिकता और स्वतंत्रता को बनाए रखे।

नागरिक जागरूक रहें और केवल एक स्रोत पर निर्भर न रहें। विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त करें और तथ्यों को क्रॉस-चेक करें।

स्वतंत्र पत्रकारिता को समर्थन दिया जाए।

तेजस्वी यादव का बयान भारतीय मीडिया के लिए एक आत्म-चिंतन का अवसर है। मीडिया को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि वह सभी आवाज़ों को सुने और निष्पक्ष रूप से रिपोर्ट करे, चाहे वे सत्ता में हों या विपक्ष में।


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