अब राजनीति कहाँ रही वो 'सेवा' की बगिया? (व्यंग्य कहानी )- प्रो प्रसिद्ध कुमार।
एक ज़माना था जब राजनीति एक तपस्या हुआ करती थी, जहाँ राजनेता नहीं, बल्कि राज-ऋषि होते थे। उनके पास पद की लालसा नहीं, बल्कि जनसेवा का संकल्प होता था। उनका चरित्र इतना उजला था कि मानो गंगा की धार भी फीकी पड़ जाए। वे कर्तव्यनिष्ठ, नीतिवान और फक्कड़ स्वभाव के थे, जिन्हें कुर्सी से ज्यादा जनता का स्नेह प्यारा था। वे जनता की सेवा को अपना धर्म मानते थे और उनके चेहरे पर धन-दौलत की नहीं, बल्कि सादगी की चमक होती थी। वे ऐसे थे जैसे कोई पेड़, जो फल से लदकर झुक जाए।
लेकिन आज, राजनीति का वो पवित्र आँगन एक बाजार बन गया है। जहाँ ईमानदारी और सिद्धांतों की बोली नहीं लगती, बल्कि धन-बल, बाहुबल और झूठ-फरेब का सिक्का चलता है। यह अब सेवा नहीं, बल्कि एक धंधा बन गया है, जिसमें नेता अपनी आत्मा को गिरवी रखकर मुनाफा कमाते हैं।
यहाँ राजनेताओं का अंतरात्मा नहीं, बल्कि मौसम बदलता है। गिरगिट तो फिर भी रंग बदलने में शर्म महसूस करता है, लेकिन यहाँ के नेता अपनी निष्ठा बदलने में पल भर भी नहीं हिचकिचाते। आज की राजनीति में उन्हीं का बोलबाला है जिनके पास सत्ता, पैसा, और कुर्सी है। यह उनके लिए धन-संग्रह का सबसे सीधा और सटीक उपाय है। वे मंच पर भले ही जनता के हित की बात करें, लेकिन पर्दे के पीछे उनका असली मकसद केवल अपनी तिजोरियाँ भरना होता है।
और जनता? वो चुनाव के समय चूजों की तरह चोंच लड़ाती है, कभी एक उम्मीदवार के पीछे तो कभी दूसरे के पीछे, लेकिन उनके मुंह से बेरोजगारी और महंगाई जैसे असली सवाल नहीं निकलते। महंगाई की मार झेलती जनता के बीच, कुछ छुटभैये नेता अपनी जेबें गर्म करने के लिए बड़े नेताओं के पीछे पूंछ हिलाते रहते हैं। वे अपने सवालों को निगल लेते हैं क्योंकि उन्हें पता है, आज के दौर में ईमानदार और बेईमान में कोई फर्क नहीं है। चुनाव आते ही सब 'जनसेवक' बन जाते हैं, और चुनाव जीतते ही जादू की तरह हवा हो जाते हैं।
कई राजनेताओं की हालत तो ऐसी है कि पैर कब्र में लटके हैं, लेकिन कुर्सी-मोह ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। दिमाग भले ही काम करना बंद कर दे, लेकिन टैलेंट का सर्टिफिकेट लेकर घूमते रहते हैं। ऊपर से तो एकदम 'फिट-फाट', लेकिन अंदर से खोखले, बिलकुल मोकामा घाट की तरह। जब ऐसे लोग परलोक सिधारते हैं, तो मजबूरी में मध्यावधि चुनाव कराने पड़ते हैं, क्योंकि उनके जाने के बाद भी कुर्सी का भूत पीछा नहीं छोड़ता। सच कहें तो, आज की राजनीति ने अपनी गरिमा खो दी है और यह केवल एक हास्य-व्यंग्य का विषय बनकर रह गई है।

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