21वीं सदी में भी एक दलित आईपीएस अधिकारी को आत्महत्या करने पर मजबूर !-प्रो प्रसिद्ध कुमार।
हरियाणा कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की आत्महत्या की दुखद घटना 21वीं सदी में भी भारतीय समाज और प्रशासन में व्याप्त गहरे जातिगत भेद-भाव और उत्पीड़न की ओर इशारा करती है। यह घटना सिर्फ एक अधिकारी की मौत नहीं है, बल्कि यह उस क्रूर सच्चाई को उजागर करती है, जहाँ उच्च शिक्षा और प्रतिष्ठित पद प्राप्त करने के बाद भी दलित समुदाय के लोग जातिवादी शोषण और मानसिक प्रताड़ना से मुक्त नहीं हो पाते।
उच्च पद, फिर भी उत्पीड़न क्यों?
वाई. पूरन कुमार, जो कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (एडीजीपी) थे, ने कथित तौर पर अपने सुसाइड नोट में जाति-आधारित उत्पीड़न के लिए वरिष्ठ पुलिस और आईएएस अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया है। यह बेहद चिंताजनक है कि:
सत्ता का दुरुपयोग: उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके एक सहकर्मी को मानसिक रूप से इतना प्रताड़ित किया गया कि उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ा।
आरक्षण की सफलता पर प्रश्न: यह घटना उन सभी दावों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है जो यह मानते हैं कि आरक्षण के माध्यम से उच्च पदों पर पहुँचने के बाद दलितों के लिए जातिगत भेदभाव समाप्त हो जाता है। आईपीएस जैसे प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने के बावजूद, जातिगत पहचान उत्पीड़न का कारण बनी रही।
बाकी दलितों का क्या होगा?
यह घटना एक भयानक प्रश्न खड़ा करती है: अगर एक आईपीएस अधिकारी, जिसके पास सुरक्षा, सम्मान और प्रशासनिक अधिकार हैं, वह जातिगत उत्पीड़न से लड़ते हुए आत्महत्या करने को मजबूर हो सकता है, तो आम दलित व्यक्ति का क्या हश्र होगा?
असुरक्षा की भावना: यह घटना दलित समुदाय में एक गहरी असुरक्षा की भावना पैदा करती है। यह बताती है कि सफलता की ऊँचाइयाँ भी जातिवादी मानसिकता से सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकतीं।
व्यवस्था की विफलता: यह हमारी कानून प्रवर्तन और न्यायिक व्यवस्था की विफलता को दर्शाती है, जहाँ दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की शिकायतें अक्सर अनसुनी कर दी जाती हैं, या उन पर धीमी गति से कार्रवाई होती है। परिवार के सदस्यों द्वारा दोषियों पर तत्काल कार्रवाई की माँग करना, इस बात का प्रमाण है कि उन्हें मौजूदा व्यवस्था पर भरोसा कम है।
'जाति' का वर्चस्व: यह दुखद घटना यह साबित करती है कि भारत में जातिगत पहचान अभी भी योग्यता और पद से ऊपर है, और जातिवादी दंश आज भी हमारे शासन और समाज में गहराई से हावी है।
इस मामले में त्वरित, निष्पक्ष और पारदर्शी जाँच होना आवश्यक है, ताकि दोषियों को उनके पद की परवाह किए बिना न्याय के कटघरे में खड़ा किया जा सके। तभी शायद यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में कोई भी दलित अधिकारी या व्यक्ति इस तरह के शोषण का शिकार नहीं होगा।
नोट- इस घटना पर आलेख लिखने के लिए सांसद मीसा भारती जी के पति श्री शैलेश कुमार के साथ मुलाकात होने पर इस विषय पर मुझे लिखने के लिए कहा।चूंकि वे मेरे ब्लॉग को बड़ी सराहना करते हैं।

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