कुर्सी का खेल ! -प्रो प्रसिद्ध कुमार।

   


​नीति कहाँ? अब कुर्सी ही सार है,

न निष्ठा दल, बस राज की पुकार है।

इसी का नाम अब 'राजनीति' हुआ,

आदर्श बेचकर, हर 'टिकटार्थी' जुआ।

​जब नियत ही डगमग, नींव ही है कच्ची,

तो अच्छी नीति भला क्या कर सकती सच्ची?

सेवा नहीं, शासन की भूख है विकराल,

छल, कपट, बल का खेल, हो रहा बेहाल।

​लोकतंत्र पर हावी अब लोकशाही ताना,

मर्यादा, शालीनता से जैसे हो बेगाना।

भाषणों में अश्लीलता, शब्दों का पतन,

निर्लज्ज आरोप, खो गया है चिंतन।

​बाहर मचता शोर, भीतर चाय की प्याली,

जनता ठगी-सी देखे, कैसी यह खुशहाली!

वोट देते-देते उम्र गुज़री, जीवन फटा हाल,

जिसे दिया वोट, वो मालामाल हर साल।

​ज़मीं छोड़ आकाश में उड़े वो महान,

ठाठ राजा-महाराजा सा उनका अब सम्मान।

सत्ता की चाह में, हर कुकर्म को तैयार,

देश की नियति पर, ये कैसा सत्ता-भार!

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