अजनबीपन की गहनता: आत्म-शुद्धि का सोपान पीड़ा का आईना और सच्चे संबंधों की परख !- प्रो प्रसिद्ध कुमार।
मानव जीवन के अनुभव-पथ पर 'अजनबीपन' (अलगाव) एक ऐसी गहन अनुभूति है, जो हृदय की कोमलता को विदीर्ण कर देती है। "अजनबीपन का दर्द गहरा होता है," और वास्तव में, इसकी वेदना मौन होती है, परंतु इसका प्रभाव जीवन की दिशा बदलने की क्षमता रखता है। यह एक ऐसा एकांत है जो बाहरी नहीं, बल्कि अंतर्मन की गहराइयों में महसूस होता है।
अजनबीपन की पीड़ा:
अजनबीपन का दर्द यह, अतिशय दारुण पीर।
भीतर से जब टूटता, तब बहता नयनन नीर॥
परंतु, यह पीड़ा केवल कष्ट का पर्याय नहीं है। यह जीवन की कठोर पाठशाला है, जहाँ से ज्ञान का प्रकाश फूटता है। इसका सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष भी है—यह हमें आत्म-परीक्षण का अवसर देता है। यह हमारी आत्मा के सम्मुख एक ऐसा आईना दिखाता है जिसमें सामाजिक संबंधों की वास्तविक छवि स्पष्ट होती है।
यह एकांत ही है जो हमें यह बोध कराता है कि "कौन हमारे लिए सही है और कौन केवल हमारी उपस्थिति का लाभ उठा रहा है।" जब हम स्वयं को भीड़ से हटाकर देखते हैं, तभी छद्म (झूठे) और सच्चे (निष्कपट) संबंधों का भेद सामने आता है। जो लोग केवल स्वार्थवश हमसे जुड़े हैं, वे इस अकेलेपन में छिटक जाते हैं, और सच्चे संबंध अपनी अटूट निष्ठा के साथ हमारे सम्मुख खड़े रहते हैं।
कबीरदास जी ने भी ऐसे ही स्वार्थी संबंधों पर गहरा कटाक्ष किया है, जो प्रेम की आड़ में केवल लाभ देखते हैं:
कबीर का बोध: स्वार्थ की पहचान
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय।
खाँड़ खाए सतसंग बिन, राम कहे नसाय॥
(अर्थात्: कबीर कहते हैं कि सज्जन की संगति में यदि जौ की भूसी भी खानी पड़े तो वह अच्छी है, पर सत्संग के बिना केवल खाँड़ (मीठा) खाने से तो राम का नाम भी नष्ट हो जाता है। अर्थात, स्वार्थ के मीठे संबंध अंततः घातक होते हैं।)
यह गहन अनुभव हमें यह सिखाता है कि प्रेम और अपनत्व का महल केवल एक व्यक्ति के प्रयास से निर्मित नहीं हो सकता। यह तभी टिकाऊ होता है जब दोनों ओर से समान भाव से समर्पण हो। "यह प्रेम और अपनापन किसी एकतरफा प्रयास से नहीं बनता।" संबंध सदैव 'द्विपक्षीय' होते हैं। जहाँ एक पक्ष निरन्तर देने और सींचने का कार्य करता है, वहीं दूसरा पक्ष केवल ग्रहणशील होकर निष्क्रिय रह जाता है, तो वह रिश्ता प्रेम नहीं, अपितु केवल एक 'समझौता' बनकर रह जाता है, जहाँ अन्ततः अजनबीपन ही शेष बचता है।
रहीम ने प्रेम और संबंध की इसी पारस्परिक निष्ठा को उजागर किया है:
रहीम की सीख: प्रेम की द्विपक्षीयता
जे रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
(भावार्थ को संबंध की ओर मोड़ते हुए: रहीम कहते हैं कि जैसे उत्तम प्रकृति के व्यक्ति पर बुरी संगति का असर नहीं होता, उसी प्रकार जहाँ सच्चा और उत्तम प्रेम हो, वहाँ अजनबीपन (विष) का प्रभाव नहीं पड़ सकता, बशर्ते प्रेम दोनों ओर से शुद्ध हो।)
अतः, अजनबीपन की पीड़ा से पलायन न करें, अपितु इसे एक शिक्षक के रूप में स्वीकार करें। यह हमें बताता है कि अपनी आत्मिक ऊर्जा को उन लोगों पर व्यय करना व्यर्थ है जो केवल हमारी 'उपस्थिति' का उपयोग करते हैं। यही दर्द अंततः हमें आत्म-निर्भरता और स्वयं से प्रेम के मार्ग पर ले जाता है, जहाँ सच्चे और झूठे की पहचान आजीवन बनी रहती है।
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