​मिथिला के सांस्कृतिक प्रतीक: उत्पादन, उपभोग और असमानता !

   


पाग , पान, मखाना व मछली उत्पादक हाशिये पर !

​मिथिलांचल की पहचान उसके समृद्ध सांस्कृतिक प्रतीकों जैसे पाग (पगड़ी), पान (सुपारी), मखाना (फॉक्स नट), और माछ (मछली) से होती है। इन चारों उत्पादों के निर्माण और उत्पादन की प्रक्रिया में मुख्य रूप से समाज के हाशिए पर खड़ी और कमजोर जातियां पीढ़ी दर पीढ़ी अपने श्रम और विशेषज्ञता का योगदान दे रही हैं। यह श्रम मिथिला की सांस्कृतिक और आर्थिक रीढ़ है।

​श्रम और लाभ का विरोधाभास

​उत्पादन में शामिल सामाजिक समूह और उपभोग, ब्रांडिंग, व्यापार और संस्थागत प्रबंधन में शामिल समूहों के बीच के विरोधाभास को निम्नलिखित बिंदुओं में देखा जा सकता है:

​1. उत्पादन और उत्पादक

​मखाना: इसके कठिन जलीय उत्पादन और प्रसंस्करण में मुख्य रूप से अति पिछड़ी जातियों (जैसे मल्लाह या नोनिया) के लोग शामिल होते हैं, जो दलदली और जोखिम भरे वातावरण में काम करते हैं।

​पान: इसकी खेती और बीड़ा बनाने के काम में भी विशेष रूप से पिछड़ी जातियां (जैसे बारी, तमोली) शामिल हैं।

​पाग (वस्त्र): इसके निर्माण में बुनकर समुदाय (जैसे जुलाहा) का श्रम लगता है।

​माछ: मछली पकड़ने और मत्स्य पालन का काम पारंपरिक रूप से मछुआरा समुदाय (जैसे मल्लाह) करता है।

​यह समूह कच्चे माल का निर्माण करता है, जो संस्कृति का आधार है, लेकिन इन्हें अक्सर असंगठित क्षेत्र के मजदूर के रूप में न्यूनतम पारिश्रमिक मिलता है।

​2. उपभोग, ब्रांडिंग और प्रबंधन

​उपभोग और माहौल: इन प्रतीकों का आकंठ उपभोग और इनके नाम पर माहौल बनाने का काम मुख्य रूप से समाज के आर्थिक रूप से सक्षम और ऊपरी तबके के लोग करते हैं। उदाहरण के लिए, मखाना और पान अब उच्च सामाजिक आयोजनों का अभिन्न अंग हैं, जिनका प्रदर्शन (स्टेटस सिंबल)   धनाढ्य समूह करते हैं।

​ब्रांडिंग और व्यापार: जब इन उत्पादों के ब्रांडिंग, एक्सपोर्ट और बड़े व्यापार की बात आती है, तो इस प्रक्रिया पर पूंजी और सामाजिक रसूख रखने वाले वर्ग का नियंत्रण होता है। उत्पादक समूह के हाथ में न तो विपणन की कुंजी होती है और न ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में होने वाले मुनाफे का बड़ा हिस्सा।

​संस्थागत प्रबंधन: इन प्रतीकों के नाम पर बनी संस्थाओं के प्रबंधन और नीति निर्धारण का जिम्मा भी उन लोगों ने अपने हाथों में केंद्रित कर लिया है जो सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं। इन संस्थाओं में उत्पादकों का प्रतिनिधित्व नगण्य होता है, जिससे नीतियां उनके हित के बजाय व्यापारी वर्ग के हित में बनती हैं।

​उत्पादन करने वाले समूह और उपभोग/व्यापार करने वाले समूह के बीच का यह लेन-देनहीन संबंध स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि सांस्कृतिक गौरव का लाभ आर्थिक रूप से उन्हीं लोगों को मिल रहा है, जिनका इन उत्पादों के निर्माण में सबसे कम शारीरिक श्रम लगा है।

​"अनगिनत रसगुल्ले" की विडंबना

​दरभंगा (मिथिला) में विवाह आदि में "अनगिनत रसगुल्ले" खिलाने की कहानी एक गहरी सामाजिक-आर्थिक विडंबना को दर्शाती है:

​सामाजिक दबाव और प्रदर्शन: यह कहानी मिथिला में मौजूद प्रदर्शन की संस्कृति (Conspicuous Consumption) को उजागर करती है। भले ही 10 में से 9 परिवार आर्थिक रूप से गरीब हों, उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए और आलोचना से बचने के लिए अपनी क्षमता से कहीं अधिक खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

​गरीबी पर पर्दा: यह रीति-रिवाज एक तरह से गरीबी पर पर्दा डालने का काम करता है। अतिथि सत्कार की यह अतिरंजित परंपरा, उस क्षेत्र की वास्तविक आर्थिक दुर्दशा और व्यापक गरीबी को छिपाती है, जिसे आपने स्वयं अनुभव किया।

​कर्ज का दुष्चक्र:  इस तरह के असाधारण खर्च करने वाले परिवार निश्चित तौर पर कर्ज के दुष्चक्र में फंस जाते हैं। सांस्कृतिक-सामाजिक दबाव उन्हें तात्कालिक सम्मान देता है, लेकिन दीर्घकालिक आर्थिक तबाही की ओर धकेलता है।

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