'पड़ोसी धर्म' और बदलता जीवन। 'पड़ोसी धर्म': कल और आज।
एक समय था जब 'पड़ोसी' हमारे जीवन का अभिन्न अंग हुआ करता था। 'पड़ोसियों से सगा दूसरा कोई और नहीं'?"। यह भावना दर्शाती थी कि पड़ोसी केवल भौगोलिक दूरी पर रहने वाले लोग नहीं थे, बल्कि सुख-दुख और जीवन की हर खुशी-गम में साझेदार थे।
पहले का जीवन: पड़ोस की महिलाएँ काम में हाथ बँटाती थीं, दुख-सुख में भागीदारी करती थीं, और दिवाली के पटाखों से लेकर तीज-त्योहारों तक, सब मिलकर मनाते थे। किसी के बीमार होने पर 'पड़ोसी डॉक्टर' के पास जाना भी एक मानवीय बंधन का प्रतीक था।
आज का जीवन: आज की 'फ्लैट संस्कृति' और 'एकाकी जीवन' ने इस रिश्ते को बदल दिया है। आज हमें यही नहीं पता होता कि हमारे पड़ोस में कौन रह रहा है। मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में, हम पड़ोस की भावना को 'तुच्छ' और अनावश्यक समझने लगे हैं।
सांस्कृतिक उथल-पुथल और अकेलापन
रिश्ते केवल 'काम-काज' तक सीमित हो गए हैं, और शादियाँ जो पहले पंद्रह-बीस दिन तक चलती थीं, वे अब दो दिन में 'निपटा दी जाती हैं'।
"आज का दौर सांस्कृतिक उथल-पुथल को और लेता जा रहा है और इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। फ्लैट संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। सब अपने-आप में ही बहुत खुश दिखने का प्रयास करते हैं।"
इस बदलाव का सबसे बड़ा शिकार बच्चों का बचपन है। पहले के पड़ोसी 'एक बड़े परिवार' का हिस्सा थे, जहाँ बच्चों का विकास उन्नत होता था। लेकिन आज, एकांत और अलगाव का भयानक वातावरण बन गया है।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बंधनों का आधार
पड़ोस से हमारे संबंध केवल व्यक्तिगत नहीं हैं, बल्कि ये 'हमारे सांस्कृतिक एवं अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे की नीति' का भी आधार हैं। पड़ोस में सद्भाव और भावनात्मक मजबूती से ही राष्ट्रीय जीवन के संबंध भी प्रगाढ़ होते हैं।

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