'बाड़ ही खेत को खाने लगे': बिहार में 'नशाखोरी' का नया गोरखधंधा, सूखा नशा और दवा माफिया!

    


​- शराबबंदी के बावजूद युवा 'नशे' के जाल में, सरकार और प्रशासन पर गंभीर सवाल।

​बिहार में शराबबंदी को एक क्रांतिकारी कदम के रूप में लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य राज्य को 'नशामुक्त' बनाना था। लेकिन, इस जनहितकारी पहल के बावजूद, आज राज्य की युवा पीढ़ी एक नए और खतरनाक नशे के गोरखधंधे की गिरफ्त में है। जहाँ दवा विक्रेता (ड्रग पेडलर्स) और अवैध कारोबारी मिलकर युवा वर्ग को 'सूखे नशे' और नशीली दवाओं की लत लगा रहे हैं। यह स्थिति शराबबंदी की सफलता पर ही नहीं, बल्कि प्रशासन की नीयत और कार्यशैली पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है।

​ 'नया गोरखधंधा': दवा विक्रेता बने नशे के सौदागर

यह स्पष्ट है कि नशीली दवाओं की आपूर्ति का एक खतरनाक चक्र चल रहा है:

​षड्यंत्र में संलिप्तता: कई दवा विक्रेता इस अवैध कारोबार में सीधे तौर पर संलिप्त हैं।

​सांठगांठ और खरीद: युवा इन्हीं विक्रेताओं से सांठगांठ करके नशे वाली दवाइयाँ खरीदते हैं।

​दस गुना मुनाफा: इन दवाओं को 10 गुना ज़्यादा दाम पर नशे के आदी लोगों को बेचा जाता है, जिससे यह एक उच्च मुनाफे वाला संगठित अपराध बन चुका है।

​निशाने पर युवा: इस धंधे में संलिप्त युवा सरकारी अस्पताल और नशा मुक्ति केंद्रों के आसपास ही मंडराते हैं, जो दिखाता है कि नशा मुक्ति के प्रयास भी इस अवैध कारोबार को नहीं रोक पा रहे हैं।

​ सरकार और प्रशासन की विफलता: जब 'बाड़ ही खेत को खाने लगे'

सवाल यह है कि: "बाड़ ही खेत को खाने लगे, तो उसका रखवाला कौन होगा?"।

​पुलिस की आँखें बंद: सबसे बड़ा सवाल यह है कि "नशा मुक्ति अभियान चलाने वाली पुलिस की नज़र इस अवैध कारोबार की ओर क्यों नहीं जाती है!" क्या प्रशासन को इस नए 'सूखे नशे' के जाल की जानकारी नहीं है? या फिर इसमें निचले स्तर पर मिलीभगत है?

​स्वास्थ्य विभाग की भूमिका: नशीली दवाओं के इस अवैध कारोबार में स्वास्थ्य विभाग, खासकर ड्रग कंट्रोलर, की भूमिका पर भी सवाल खड़ा होता है। नशे के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाइयाँ (जैसे कफ सीरप, दर्द निवारक, स्लीपिंग पिल्स) बिना डॉक्टर के पर्चे के कैसे बेची जा रही हैं? दवा दुकानों का प्रभावी निरीक्षण क्यों नहीं हो रहा है?

​केवल शराबबंदी पर ध्यान: सरकार ने शराबबंदी पर अपनी सारी ऊर्जा केंद्रित कर दी, लेकिन इस प्रक्रिया में 'सूखे नशे' और दवा माफियाओं द्वारा फैलाए जा रहे इस नए खतरे को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया। यह दिखाता है कि नीति निर्माण में दूरदर्शिता की कमी थी।

 अब दिखावटी नहीं, ठोस कार्रवाई की ज़रूरत

​यदि सरकार और प्रशासन ने जल्द ही इस दवा माफिया-युवा गठजोड़ को नहीं तोड़ा, तो शराबबंदी का पूरा प्रयास निरर्थक हो जाएगा। आज नशीली दवाओं के सस्ते विकल्प ने युवाओं को आसानी से अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जिससे उनका भविष्य और राज्य की सामाजिक संरचना दोनों खतरे में है।

​सरकार को तत्काल निम्नलिखित कदम उठाने होंगे:

​ड्रग कंट्रोलर की जवाबदेही तय करना: नशीली दवाओं की बिक्री पर सख़्त निगरानी और थोक विक्रेताओं पर छापेमारी।

​'एंटी-ड्रग टास्क फोर्स': पुलिस के भीतर एक विशेष इकाई का गठन जो केवल 'सूखे नशे' और दवा माफिया के खिलाफ काम करे।

​नशा मुक्ति केंद्रों की समीक्षा: इन केंद्रों के आसपास मंडराने वाले नशेड़ियों और अवैध विक्रेताओं पर तत्काल कार्रवाई।

​बिहार के युवाओं को बचाने के लिए, सरकार को अब केवल शराबबंदी के गुणगान से बाहर निकलकर, इस नए 'नशाखोरी के वायरस' का सख्त और प्रभावी तरीके से इलाज करना होगा।

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