डगर-डगर के रिश्ते: 'यार' और 'पति' की पाँच धुर ज़मीन! ! ( कहानी )- प्रो प्रसिद्ध कुमार।
ऑटो की सीट पर एक अनसुलझा सवाल !
कॉलेज से लौटते वक्त, जब मैं ऑटो की सीट पर बैठा, तो पास बैठी एक महिला ने अचानक एक ऐसा सवाल दागा जिसने मेरे दिमाग़ के तार उलझा दिए। "कोई व्यक्ति दो महीने के लिए 5 धुर ज़मीन मेरे नाम पर एग्रीमेंट कर देगा, तो इसके बाद उस ज़मीन की रजिस्ट्री मेरे नाम पर हो जायेगी न!"
पहली बार में, मैं उसकी बात का मर्म समझ ही नहीं पाया। मैंने उसका परिचय पूछा। उसने बताया कि उसका मायका और ससुराल, दोनों ही जहानाबाद के किसी गाँव में हैं। मैंने कुछ और जानने की इच्छा जताई, तो उसने एक अजीबो-ग़रीब उदाहरण से बात समझानी शुरू की।
ऑटो चालक की ओर इशारा करते हुए वह बोली, "ये मेरे पति हैं, और आप मेरे यार हैं।"
यह सुनते ही मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई!
उसने अपनी बात जारी रखी, "पति से तीन बच्चे हैं, वे उनके साथ रहते हैं। और मैं आपके साथ पटना के डेरा पर काम करते हुए, आपके साथ रहने लगी, तो रिश्ते बन गए..."
विस्मय, क्रोध और 'पागल' का लेबल
मैंने बीच में ही उसे सख़्ती से टोका। "तुम पागल हो क्या? तुम अपने पति के सामने मुझे क्या कही जा रही हो, और इस ऑटो चालक को कुछ नहीं बुझाता है?"
अगले ही पल, ऑटो चालक ने गाड़ी रोक दी। उसके चेहरे पर ग़ुस्सा और हैरानी दोनों थी। वह बोला, "भाई साहब, मैं इस औरत को जानता नहीं हूँ, और ये मुझे पति कहे जा रही है और आपको..."
इससे पहले कि वह कुछ और कह पाता, वह औरत तपाक से बोली, "आप लोग पागल हैं क्या? मैं तो पूरी बात समझाने के लिए चालक को और आपको बोल रही हूँ।"
इस अद्भुत तर्क को सुनकर मैंने और चालक, दोनों ने माथा पकड़ लिया। सामाजिक मर्यादाओं को धत्ता बताने वाली इस व्याख्या ने हमें निःशब्द कर दिया।
दूसरा सिंदूर और पाँच धुर का एग्रीमेंट
फिर उसकी कहानी उसकी ज़ुबानी शुरू हुई, जिसमें न संकोच था, न कोई लाग-लपेट।
"दूसरा वाला भी माँग में सिंदूर दे दिया है, उसी के यहाँ काम करते हैं। बेचारा वृद्ध है, अकेला है। वही ज़मीन एग्रीमेंट किया है।"
मैंने भौंचक्का होकर पूछा, "ये चक्कल्स (प्रपंच) आपके पतिदेव जानते हैं?"
उसने सहजता से जवाब दिया, "हाँ, उनका भी और बच्चों का भी ख़र्च यहीं से चलता है।"
इस जवाब ने मेरी चेतना को झकझोर दिया। एक पल के लिए मुझे अपने साथ काम करने वाले एक सहकर्मी की कहानी याद आई, जिसकी आर्थिक विवशताएँ भी कुछ ऐसी ही थीं।
डगर-डगर पर रिश्ते, ज़रूरत की कसौटी
इतना सोचते ही, वह औरत अपनी मंज़िल तक पहुँच गई। वह ऑटो से उतर गई, लेकिन किराया देने के लिए उसी 'यार' पर निर्भर थी।
सड़क पर एक वृद्ध पुरुष खड़े थे—शायद वही, जिसने उसे 5 धुर ज़मीन का एग्रीमेंट दिया था। उन्होंने ही किराया चुकाया। ऑटो चालक ने मेरी ओर देखते हुए फुसफुसाया, "लगता है, यही इसका दूसरा वाला पति है जिसने उसे ज़मीन देने का एग्रीमेंट किया था।"
इस पूरे वाकये ने मुझे गहरे चिंतन में डाल दिया। समाज ऐसी महिला व पुरुषों को भले ही 'बदचलन' या अन्य कठोर नाम दे, लेकिन क्या यह हमारे समाज की विषम, सड़ी-गली आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों का एक आईना नहीं है?
इस महिला के लिए 'पति' और 'यार' महज रिश्ते न होकर, जीवनयापन की आवश्यक शर्तें बन चुके थे। पाँच धुर ज़मीन का सवाल, सिर्फ़ जायदाद का नहीं, बल्कि उसके और उसके बच्चों के अस्तित्व की गारंटी का सवाल था।
अगर इन लोगों को और उनके परिवारों को इस तरह से जीवन जीने में कोई आपत्ति नहीं है, अगर उनके रिश्ते आपसी समझौते और आर्थिक ज़रूरतों पर टिके हैं—तो इस पर समाज के नैतिक ठेकेदारों को माथापच्ची करने की क्या ज़रूरत है? हो सकता है, उनके ये 'समझौते वाले रिश्ते' हमारे 'नैतिक' और 'कानूनी' रिश्तों से कहीं ज़्यादा ईमानदार हों, क्योंकि वे किसी आर्थिक विवशता को छुपाते नहीं हैं, बल्कि उसे सरेआम स्वीकार करते हैं।

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