रोहतास के 13 करोड़ के ढहते बिहार के 'सेल्फी पॉइंट' !

 


"   सिर्फ वही देखना जो स्वार्थ के अनुकूल हो।"

​बिहार में इन दिनों एक नया 'टूरिज्म' फल-फूल रहा है— 'ध्वस्त स्थापत्य कला' का दर्शन। रोहतास में अभी रोपवे का टावर क्या गिरा, मानों भ्रष्टाचार की नींव ने एक और अंगड़ाई ली हो। सरकार कहती है कि हम भ्रष्टाचार को 'ध्वस्त' कर देंगे, लेकिन धरातल पर भ्रष्टाचारी ही पूरी संरचनाओं को ध्वस्त कर सरकार के दावों की हवा निकाल रहे हैं। यह विडंबना ही है कि बिहार में अब पुल और टावर निर्माण के लिए नहीं, बल्कि गिरने के 'विश्व रिकॉर्ड' बनाने के लिए चर्चा में हैं।

​जब 'विकास' जल-समाधि लेने लगे

​पिछले कुछ महीनों में बिहार ने वो मंजर देखे हैं जो किसी डरावनी फिल्म से कम नहीं। अररिया, सिवान, मधुबनी और किशनगंज—ये महज़ जिलों के नाम नहीं हैं, ये उन जगहों की सूची है जहाँ करोड़ों की लागत से बने पुल जनता के काम आने से पहले ही नदियों में समा गए।

​अगुवानी-सुल्तानगंज पुल: यह तो भ्रष्टाचार का 'ताजमहल' बन गया, जो दो बार गिरा।

​अररिया का बकरा नदी पुल: उद्घाटन से पहले ही जो जलमग्न हो गया, मानो अपनी बदकिस्मती पर आँसू बहा रहा हो।

​इसे 'इंजीनियरिंग फेल्योर' कहना उन भ्रष्ट अधिकारियों और ठेकेदारों का अपमान होगा जिन्होंने बड़ी मेहनत से जनता की गाढ़ी कमाई को अपनी जेबों में 'एडजस्ट' किया है।

​सत्ता की 'एक्स-रे' दृष्टि: तहखाने बनाम खंडहर

​सत्तापक्ष के प्रवक्ताओं की दृष्टि कमाल की है। उन्हें रोहतास में गिरा हुआ टावर नहीं दिखता, उन्हें नदियों में बहते पुल नहीं दिखते, और न ही मद्य निषेध व खनन में हो रही खुली लूट दिखती है। उनकी 'दिव्य दृष्टि' तो विपक्ष के नेताओं के खाली फ्लैटों की फर्श के नीचे गड़े 'खजाने' को खोजने में व्यस्त है।

​"जब शहर जल रहा हो, तब तहखानों की खुदाई की बात करना वैसी ही चालाकी है जैसी धृतराष्ट्र ने संजय से युद्ध का हाल पूछते हुए दिखाई थी—सिर्फ वही देखना जो स्वार्थ के अनुकूल हो।"

​मीडिया और बुद्धिजीवियों का 'मौन व्रत'

​लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब 'शॉर्टकट' स्तंभ बन गया है। भ्रष्टाचार की चीखती खबरों को अखबार के किसी कोने में संक्षिप्त में दफन कर दिया जाता है। बड़े-बड़े स्तंभकार और लेखक आज भी नेहरू और इंदिरा गांधी के दौर का 'पोस्टमार्टम' करने में व्यस्त हैं। उनके लिए वर्तमान की बदहाली और दिनदहाड़े होती हत्या-लूट शायद इतनी 'साहित्यिक' नहीं है कि उस पर कलम चलाई जाए। जब जमीर समझौता कर ले, तो सवाल पूछना भी गुनाह लगने लगता है।

 जवाबदेही की बलि

​बिहार की जनता आज पूछ रही है कि आखिर ये 'लीपापोती' कब तक चलेगी? पुलिस की फाइलों से लेकर खनन के गड्ढों तक भ्रष्टाचार की जो दुर्गंध आ रही है, उसे परफ्यूम लगाकर दबाया नहीं जा सकता। सत्ता का सरोकार जनता से होना चाहिए, न कि सिर्फ सत्ता बचाने के जुगाड़ से।

​अगर आज सवाल नहीं पूछे गए, तो कल रोहतास का रोपवे हो या सुल्तानगंज का पुल, ये सब सिर्फ कागजों पर ही 'मजबूत' नजर आएंगे, जमीन पर तो सिर्फ मलबा और भ्रष्टाचार की दास्तां ही बचेगी।

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