मनरेगा और नई योजनाएँ: सुधार या राज्यों पर अतिरिक्त भार?
हाल के नीतिगत बदलावों और नई योजनाओं के क्रियान्वयन ने एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय असंतुलन की बहस को जन्म दे दिया है। वर्तमान परिदृश्य में सरकार की नीतियां जनहित के दावों और व्यावहारिक धरातल के बीच झूलती नजर आ रही हैं।
नीतिगत अस्पष्टता और मनरेगा की अनदेखी
यदि सरकार के पास जनकल्याण के लिए नए प्रावधान थे, तो उन्हें मनरेगा जैसी स्थापित योजना में ही क्यों शामिल नहीं किया गया? मनरेगा को अधिक लक्ष्यबद्ध बनाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त किया जा सकता था। नई योजनाओं को लाने की होड़ में अक्सर पुरानी और प्रभावी योजनाओं के बुनियादी ढांचे की उपेक्षा कर दी जाती है।
पारिश्रमिक बनाम कार्यदिवस: एक अधूरा न्याय
बढ़ती महंगाई के इस दौर में कार्यबल की सबसे प्राथमिक मांग पारिश्रमिक में वृद्धि होनी चाहिए थी। सरकार ने वेतन बढ़ाने के बजाय काम के दिनों को 25 दिन बढ़ाकर एक "संख्यात्मक राहत" देने की कोशिश की है। लेकिन सवाल यह है कि यदि दैनिक मजदूरी ही सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त नहीं है, तो अधिक दिनों तक कम मजदूरी पर काम करना श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में कितना वास्तविक सुधार लाएगा? यह कदम 'राहत' कम और 'खानापूर्ति' अधिक प्रतीत होता है।
राज्यों की वित्तीय स्थिति और संघीय ढांचा
सबसे चिंताजनक पहलू राज्यों पर डाला गया 40 प्रतिशत वित्तीय भार है। राज्य सरकारें पहले ही जीएसटी मुआवजे और ग्रामीण विकास कोष की कमी को लेकर केंद्र से शिकायत कर रही हैं। ऐसे में "खाली खजाने" की चुनौती झेल रहे राज्यों पर नई योजना का भारी आर्थिक बोझ डालना सहकारी संघवाद की भावना के विपरीत है।
लोक -लुभावन घोषणाओं से इतर, आवश्यकता इस बात की है कि योजनाओं का क्रियान्वयन व्यावहारिक हो। केवल कार्यदिवस बढ़ाना समाधान नहीं है; समाधान तब होगा जब श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक मिले और राज्यों पर आर्थिक बोझ लादे बिना योजनाओं का विकेंद्रीकरण किया जाए।

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