वेदना से विवेक तक: चेतना का रूपांतरण !
जीवन केवल सुखद अनुभवों की शृंखला नहीं है, बल्कि यह संघर्ष, पीड़ा और अंतर्द्वंद्वों का एक विस्तृत सागर है। अक्सर हम दुःख को एक अंत मान लेते हैं, लेकिन दार्शनिक दृष्टि से देखें तो 'वेदना' केवल पीड़ा नहीं, बल्कि जीवन की गूंज है। यह वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को आत्म-निरीक्षण और सत्य की खोज के लिए बाध्य करती है।
पीड़ा का दार्शनिक पक्ष
साधारण स्तर पर दुःख हमें विचलित करता है, लेकिन जब यही दुःख हमारी चेतना से जुड़ता है, तो यह व्यक्तित्व निर्माण का साधन बन जाता है। छवि के अनुसार, चेतना ही वह माध्यम है जो साधारण अनुभवों को 'जीवन दर्शन' में बदल देती है। जब हम अपनी पीड़ा को केवल व्यक्तिगत हानि न मानकर उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तब 'विवेक' का जन्म होता है।
महापुरुषों के जीवन से सीख
इतिहास गवाह है कि महान व्यक्तित्वों का निर्माण कठिन परिस्थितियों की भट्टी में ही हुआ है:
महात्मा बुद्ध: उन्होंने जन्म, मृत्यु और रोग जैसी सार्वभौमिक पीड़ा को देखा, लेकिन वे उससे टूटे नहीं। उन्होंने उस वेदना को करुणा और आत्म-ज्ञान में रूपांतरित कर दिया।
महर्षि पतंजलि: उन्होंने मन के संघर्षों (चित्त-वृत्तियों) को अनुशासित कर 'योगदर्शन' जैसा अमूल्य मार्ग विश्व को दिया।
सुकरात: यूनानी दार्शनिक सुकरात ने मृत्यु-दंड जैसे चरम कष्ट को भी सत्य की साधना का माध्यम बना लिया।
कबीर व वाल्मीकि: सामाजिक तिरस्कार और हिंसा के अंधकार से निकलकर इन्होंने आत्मबोध और कालजयी काव्य की रचना की।
सामाजिक प्रासंगिकता
आज के समाज में, जहाँ असफलता या अपमान व्यक्ति को अवसाद (Depression) की ओर धकेल देता है, यह दर्शन अत्यंत प्रासंगिक है। सामाजिक अपमान, पराजय या उपेक्षा केवल दुःख के कारण नहीं होने चाहिए, बल्कि इन्हें निर्भीक वैचारिक चेतना का स्रोत बनाना चाहिए।
"वेदना जब अभिव्यक्ति पाती है, तो वह काव्य बन जाती है; और जब वह समाधान खोजती है, तो दर्शन बन जाती है।"
हमें यह समझना होगा कि जीवन में आने वाली बाधाएं हमें रोकने के लिए नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपी संभावनाओं को जगाने के लिए आती हैं। यदि हम अपनी पीड़ा को चेतना के साथ जोड़ लें, तो हम न केवल स्वयं का कल्याण करेंगे, बल्कि समाज को भी एक नई दिशा देने में सक्षम होंगे।

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