​कट्टरपंथ: संवैधानिक मूल्यों का ह्रास और अस्थिरता का मार्ग !

 


​आज के दौर में कट्टरपंथ और वैचारिक संकीर्णता एक ऐसी चुनौती बनकर उभरी है, जो न केवल सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रही है, बल्कि राष्ट्र की लोकतांत्रिक नींव पर भी प्रहार कर रही है। जब भी कोई समाज समावेशी विचारों को त्यागकर कट्टरपंथ की ओर कदम बढ़ाता है, तो सबसे पहले 'धर्मनिरपेक्षता' और 'बहुलतावाद' जैसे मूल्य बलि चढ़ जाते हैं।

​संवैधानिक ढांचे पर प्रहार

​भारत का संविधान समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर टिका है।  यदि देश में ऐसी कट्टरपंथी विचारधारा हावी होती है जो केवल एक विशिष्ट पहचान (जैसे 'हिंदू राष्ट्र') को प्राथमिकता देती है, तो वहां आधुनिक लोकतांत्रिक संविधान के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचेगा। संविधान का मूल उद्देश्य ही हर नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो, समान अधिकार देना है। कट्टरपंथ इस मूल भावना के विपरीत कार्य करता है।

​अराजकता का भय: पड़ोसी देशों से सीख

​इतिहास और वर्तमान गवाह हैं कि जिन देशों ने धार्मिक कट्टरपंथ को अपनी राजनीति और शासन का आधार बनाया, वे आज अस्थिरता और अराजकता के दौर से गुजर रहे हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं, जहाँ कट्टरपंथी ताकतों के उदय ने न केवल अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन किया, बल्कि शासन व्यवस्था को भी पंगु बना दिया। यदि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में बहुलतावाद को नकारा गया, तो यहाँ भी वैसी ही अराजकता फैलने का खतरा है जो विकास और शांति को दशकों पीछे धकेल सकती है।

​बहुलतावाद की आवश्यकता

​भारत की शक्ति उसकी विविधता में है। 'बहुलतावाद' (Pluralism) का अर्थ केवल अलग-अलग समुदायों का साथ रहना नहीं है, बल्कि एक-दूसरे के अस्तित्व और विचारों का सम्मान करना भी है। कट्टरपंथ इस सम्मान को समाप्त कर 'डर' और 'विभाजन' पैदा करता है।

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