न्याय की डगर और रसूख का साया।

  


    ​1. कानूनी दांव-पेंच और न्याय में बाधा

 आज भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर लगाम लगाना एक बड़ी चुनौती है। अक्सर "कानूनी बारीकियों"  का सहारा लेकर जघन्य अपराधों के दोषियों को रियायत मिल जाती है। जब एक सिद्ध अपराधी को जमानत या सजा में निलंबन मिलता है, तो वह केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं रह जाती, बल्कि पीड़ित के लिए न्याय के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन जाती है।

​2. सत्ता और रसूख का प्रभाव

पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का मामला है। 

​निचली अदालत ने अपराध की गंभीरता को देखते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी।

​दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सजा के निलंबन के फैसले ने न्याय की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

यह इस बात की ओर संकेत करता है कि राजनीतिक रसूख वाले अपराधी किस तरह तंत्र को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

​3. पीड़ित का संघर्ष और व्यवस्था की विफलता

​पिता की मृत्यु, एक्सीडेंट के नाम पर जानलेवा हमला और परिजनों को खोना।

जब अपराधी ताकतवर होता है, तो न्याय की लड़ाई केवल अदालत तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह जीवन और मृत्यु का संघर्ष बन जाती है। ऐसे में कानूनी रियायतें पीड़िता के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।

​4. "न्याय केवल होना नहीं चाहिए, दिखना भी चाहिए"

 समाज में कानून का इकबाल तभी कायम रहता है जब न्याय होता हुआ दिखाई दे। जब रसूखदार दोषियों को रियायत मिलती है, तो जनता का न्यायपालिका से भरोसा डगमगाने लगता है।  सजा की कम दर (Low conviction rate) का मुख्य कारण यही है कि असली दोषी अक्सर कानूनी पेचीदगियों का फायदा उठाकर बच निकलते हैं।

​कुल मिलाकर  जघन्य अपराधों, विशेषकर POCSO और बलात्कार जैसे मामलों में, किसी भी प्रकार की 'उदारता' समाज में गलत संदेश भेजती है। न्याय की राह तब तक अधूरी है जब तक कि कानून का डर अपराधियों के मन में और सुरक्षा का भाव पीड़ितों के मन में न हो।

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