डिजिटल बचपन: तकनीक के उत्साह में कहीं खो न जाए बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य !

   


​आज के दौर में डिजिटल उपकरणों को भारत में शिक्षा और उज्ज्वल भविष्य का एक सशक्त माध्यम माना जा रहा है। निःसंदेह तकनीक ने सीखने के नए दरवाजे खोले हैं और सूचनाओं तक पहुँच को आसान बनाया है, लेकिन इस डिजिटल क्रांति के उत्साह में हम बच्चों के मानसिक और संज्ञानात्मक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।

​सिमटता बचपन: मोबाइल ही अब खेल का मैदान

​शहरी जीवन में बदलाव इस कदर आया है कि बच्चों के लिए असली खेल के मैदान अब मोबाइल की स्क्रीन में सिमट गए हैं। चिंता की बात यह है कि अब यह प्रवृत्ति केवल बड़े शहरों तक सीमित नहीं रही, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी तेजी से पैर पसार रही है। जहाँ पहले बच्चे गलियों और पार्कों में दौड़ते-भागते थे, अब वे घंटों एक ही जगह बैठकर स्क्रीन से चिपके रहते हैं।

​सीमित होता 'दृश्य संसार'

​तकनीक पर बढ़ती इस निर्भरता का परिणाम यह है कि बच्चों का 'दृश्य संसार' (Visual World) बहुत छोटा और एकरूप होता जा रहा है। वे दुनिया को अनुभव करने के बजाय केवल उसे स्क्रीन पर देख रहे हैं। इससे उनकी रचनात्मकता, सोचने की क्षमता और बाहरी वातावरण से जुड़ाव कम हो रहा है।

​संतुलन की आवश्यकता

​यहाँ यह समझना आवश्यक है कि तकनीक स्वयं कोई समस्या नहीं है, बल्कि समस्या इसके असंतुलित उपयोग में है। हमें खुद से और समाज से कुछ गंभीर सवाल पूछने की जरूरत है:

​क्या हम बच्चों को स्क्रीन से हटकर दुनिया को देखने के पर्याप्त अवसर दे रहे हैं?

​क्या उनके पास शारीरिक गतिविधियों (दौड़ने-खेलने) के लिए समय और स्थान बचा है?

​क्या तकनीक उनके स्वतंत्र चिंतन और कल्पनाशीलता में बाधक तो नहीं बन रही?

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