"मेरे पिता, मेरा स्वाभिमान"!-प्रो प्रसिद्ध कुमार।
पुण्यतिथि: 30वीं (स्मृति शेष: 25 दिसंबर 1995)
आज से ठीक तीन दशक पहले, 25 दिसंबर 1995 की वह दुपहरी मुझे आज भी याद है। दानापुर रेलवे अस्पताल की वह घड़ी, जब दिन के करीब 12 बज रहे थे और मेरे पिता, जिन्हें दुनिया 'रामजी' के नाम से जानती थी, हमें मोह-माया के बंधनों से मुक्त कर चिरनिद्रा में सो गए। आज उनकी 30वीं पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि-कोटि नमन।
कर्तव्यनिष्ठा और संघर्ष का पर्याय
पिता जी दानापुर रेलवे के IOW विभाग में राजमिस्त्री के रूप में कार्यरत थे। उस दौर में आज जैसी ठेकेदारी प्रथा नहीं थी; छोटे-छोटे निर्माण कार्यों की नींव में पिता जी जैसे कर्मयोगियों का पसीना लगा होता था। मुझे याद है, मैं छोटा था और हफ़्तों उनके दर्शन नहीं होते थे। वे सूर्योदय से पहले ड्यूटी पर निकल जाते और देर रात लौटते। समय की पाबंदी और अनुशासन उनकी पहचान थी। उनकी मेहनत का ही फल था कि आज रेलवे की वे दीवारें और संरचनाएं अडिग खड़ी हैं।
असीम उदारता और अपनों का दंश
पिता जी का हृदय एक विशाल समुद्र की तरह था। उन्होंने संयुक्त परिवार और अनगिनत संबंधियों की जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ढोया। उन्होंने दूसरों के जीवन को सींचने के लिए स्वयं को जलाया। आज जो लोग समाज में 'महाराज' बनकर ठाठ दिखा रहे हैं, उनका अस्तित्व शायद पिता जी की उसी उदारता की देन है। विडंबना देखिए, कि जिनकी उन्होंने मदद की, आज वही समय बदलने पर अपनी कृतघ्नता का परिचय दे रहे हैं। पर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं, यह शायद कलियुग का प्रभाव है। पिता जी ने 'राम' की तरह वनवास और क्लेश झेला, ताकि दूसरों के लिए राजमहल बन सकें।
एक पुत्र का संकल्प और स्वाभिमान
पिता जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते, मैंने उनके स्नेह और डांट को सबसे अधिक पाया। बचपन में शहर जाकर पढ़ने की जिद्द और 10वीं कक्षा में जबरन हुई शादी के फैसलों ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी। अगर उस समय मेरी आवाज सुनी जाती, तो शायद आज मैं किसी और मुकाम पर होता। लेकिन पिता जी की तरह मैं भी जिद्दी और स्वाभिमानी था।
जब एक 'जम्बूजेट' जैसे विशाल परिवार की जिम्मेदारी मेरे अल्पायु कंधों पर आई, तो मैं कच्चे बांस की तरह टूटा नहीं, बल्कि जिम्मेदारियों के बोझ से 90 डिग्री तक झुककर भी लड़ता रहा। अपने पाँच छोटे भाइयों और पूरे परिवार को संभालने के लिए मैंने हर दिन कड़ी मेहनत की, ताकि पिता जी का नाम और परिवार का स्वाभिमान बना रहे।
श्रद्धांजलि
हे पिता! आपकी कमी आज भी खलती है। आपने हमें अभावों में भी स्वाभिमान से जीना सिखाया। आपकी उदारता के कारण मिले 'कांटे' भी हमें आपकी याद दिलाते रहते हैं। आप हमारे आदर्श हैं, हमारा गौरव हैं।
"अश्रुपूरित नयनों से आपको शत-शत नमन, पिता जी!"

Comments
Post a Comment