रूस-चीन निकटता: भारत की कूटनीतिक संतुलन की परीक्षा!

 


​हाल के वर्षों में वैश्विक राजनीति के पटल पर रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियों ने नए भू-राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है। पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों और अमेरिका के साथ बढ़ते तनाव ने मॉस्को और बीजिंग को एक-दूसरे के करीब ला दिया है। चूँकि चीन भारत का प्रमुख रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है और रूस भारत का एक विश्वसनीय ऐतिहासिक मित्र, यह स्थिति नई दिल्ली के लिए एक 'दोधारी तलवार' के समान है।
​वर्तमान चुनौतियां और भू-राजनीतिक परिदृश्य
​रूस अब चीन का एक महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार बन चुका है। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि क्या रूस की चीन पर बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक निर्भरता, भारत के साथ उसके दशकों पुराने रक्षा और वैज्ञानिक संबंधों को प्रभावित करेगी। दक्षिण एशिया में चीन का बढ़ता प्रभाव और 'हिमालयी सीमा' पर तनाव भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए निरंतर चुनौती बना हुआ है।
​सुधारात्मक दृष्टिकोण और आगे की राह
​भारत को इस जटिल स्थिति से निपटने के लिए निम्नलिखित रणनीतिक सुधारों पर ध्यान देना चाहिए:
​रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy): भारत को अपनी उस नीति को और मजबूत करना चाहिए जहाँ वह किसी एक गुट का हिस्सा बनने के बजाय अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखता है। हमें रूस के साथ अपने संबंधों को चीन के चश्मे से देखने के बजाय 'स्वतंत्र' बनाए रखना होगा।
​रक्षा और ऊर्जा में विविधता: हालांकि रूस के साथ हमारा भरोसा अटूट है, लेकिन भविष्य की अनिश्चितताओं को देखते हुए भारत को अपने रक्षा उपकरणों और ऊर्जा आयात के स्रोतों में विविधता (Diversification) लानी चाहिए। आत्मनिर्भर भारत के तहत स्वदेशी तकनीक का विकास अब विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता है।
​रूस के साथ 'सॉफ्ट पावर' का उपयोग: रूस के साथ भारत के संबंध केवल सरकारों तक सीमित नहीं हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान, अंतरिक्ष अभियान और ऊर्जा सुरक्षा में दशकों का साझा इतिहास है। भारत को इस 'भरोसे की पूंजी' का उपयोग चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए करना चाहिए।
​पड़ोसी देशों के साथ सक्रिय जुड़ाव: चीन की 'घेराबंदी' की नीति को विफल करने के लिए भारत को अपने अन्य पड़ोसियों (जैसे नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश) के साथ आर्थिक और ढांचागत परियोजनाओं में तेजी लानी होगी, ताकि वे चीन के 'कर्ज जाल' से दूर रह सकें।

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