प्रेमचंद की जीवनी हमें संघर्षशील ,जुझारू व तार्किक बनाता है! /प्रसिद्ध यादव।
जिसके जीवन में अंधविश्वास, रूढ़िवादिता,भाग्यवादिता घर कर गया है और भय से भूत नही भाग रहा है, उसे प्रेमचंद की जीवनी और उनकी रचना पढ़नी चाहिए।जिसे धर्म के नाम पर नफ़रत, द्वेष,घृणा है और मानवता से बड़ा कोई और धर्म समझता है, उसकी भी आंखों की पट्टी खुल जाएगी।जातीय व्यवस्था, छुआछूत, ऊंच नीच का भेदभाव देखना है तो ' ठाकुर का कुंआ 'कहानी पढ़ना चाहिए। ब्राह्मणवादी व्यवस्था की चक्की में कैसे लोग पिसा रहे हैं इसका सजीव चित्रण ' सवा सेर गेंहू'कहानी पढ़ना चाहिए। नरक का भय दिखाकर विप्र शंकर को सवा सेर गेंहू के बदले 6 मन गेंहू लेता है फिर भी कर्ज नही चुकता हुआ।वह थक हार कर विप्र का बंधुआ मजदूर बन जाता है, इसके मरने के बाद इसका बेटा भी बंधुआ मजदूर बन जाता है।आज भी अंधविश्वासी लोग बंधुआ मजदूर की तरह ही जी रहे हैं। गोदान,कर्मभूमि, निर्मल,पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा, ईदगाह आज भी प्रासंगिक व प्रेरणादायक है।प्रेमचंद की जिंदगी कितनी फटेहाल,तंगहाल था कि घर चलाने के लिए वे अपना कोट,किताब बेच दिए थे। अल्प समय में माँ की साया खत्म हो गई,13 साल में अपने से उम्रदराज लड़की से शादी हो वो भी कुरूप, कर्कश आवाज वाली और बाद में छोड़कर चली गई, सौतेली माँ की पडतारना, फिर विधवा से विवाह करना इनके जीवन की नियति थी।
प्रेमचंद की कुछ उक्तियाँ-
न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं,वह जैसे चाहती है नाचती है।
जिस प्रकार नेत्रहीन के लिये दर्पण बेकार है उसी प्रकार बुद्धिहीन के लिये विद्या बेकार है।
अपनी भूल अपने ही हाथों से सुधर जाए तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।
देश का सुधार विलासियों द्वारा नही हो सकता,उसके लिये सच्चा त्यागी होना आवश्यक है।
क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नही करता,वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारेनहीँ होते।
मैं एक मजदूर हूँ।जिस दिन कुछ लिख न लूं,उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक़ नहीं।
संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं ,जहाँ स्नेह नही वहां कुछ नही है।
जिस बन्दे को पेट भर रोटी नही मिलती,उसके लिये मर्यादा और इज्जत ढोंग है।
अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है।
यश त्याग से मिलता है,धोखाधड़ी से नही।
आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन घमंड है।
आज भी मुंशी प्रेमचंद की उक्ति आत्मसात करने की जरूरत है।
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