धर्मसंकट की स्थिति में क्या करें ? - प्रसिद्ध यादव।

 

  




“क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?” -कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का मशहूर कथन  ऐसी स्थिति में सम्बल देती है।
  धर्मसंकट बड़ी दुविधा की स्थिति होती है।क्या करें और क्या नहीं। इधर कई महीनों से हमारी स्थिति भी कई मोर्चे पर यही है। ऐसे में ये देखना पड़ता है कि क्या न्यायसंगत है, नैतिक है, सत्य है ,वैधानिक है ? इन्हीं कसौटियों पर कार्यों के मूल्यांकन करते हैं और करते हैं लेकिन मेरे साथ विडम्बना यह है कि हम किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाते हैं, क्योंकि  झूठ बहुत हावी है।जनसरोकार को देखते हैं तो वहां से पैर पीछे खिंचने का मन नहीं करता है और कदम बढ़ाते हैं तो रास्ते में कांटे ही कांटे। कभी मन करता है कि  बहुत कम सम्पर्क ही  रखें । नाहक ही हम पिसे जाते हैं।  आदमी गैरों से जीत सकता है लेकिन अपनों से जीत भी हार लगती है।  धर्मसंकट बिवेक की वह स्थिति जिसमें किसी कार्य को करना भी उचित लगे और न करना भी उचित । कार्य को करने की कठिनाई ।
  दुर्भिक्ष में अन्न न मिलने पर प्राण जाने का संकट उपस्थित होने पर विश्वामित्र ने चाण्डाल के घर से मांस चुराकर खाया था और उषस्ति ने अन्त्यज के झूंठे उड़द खोकर प्राण रक्षा की थी, किन्तु विलोचन का ऐसा उदाहरण भी मौजूद है कि अभक्ष खाने का अवसर आने पर उसने प्राणों का परित्याग कर दिया था।
कुछ कहावतें ऐसी ही स्थिति के लिए प्रचलित है-
आगे कुंआ, पीछे खाई ।  भई गति सांप छुछुन्दर केरी आदि।

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