विचारों को सुनाने के लिए जब वक्ता को श्रोताओं को नाश्ता करवाना पड़ा।

   


बेचैन आत्मा को  अपनी  आइडिया सुनाने के लिए क्या - क्या मस्कत करनी पड़ती है ,वो आज मैं देखा। डॉ प्रोफेसर साहेब जब दार्शनिक अंदाज में कुछ कहना चाह रहे थे कि बीच में ही टोकाटोकी कर के व्यवधान उत्पन्न हो जाता। वक्ता बार - बार अनुनय -  विनय करते रहे , लेकिन श्रोता सुनने को तैयार नहीं थे।  सुने भी कैसे?  सभी के सभी बुद्धिजीवी थे। वक्ता का बोलने का थीम था ' एक मिनट में इंडिया का प्रॉब्लम व एक मिनट में सॉल्यूशन ।' श्रोताओं ने एक स्वर में वक्ता को बोले कि हम आपके बकवास सुनने के लिए नहीं आये हैं। वक्ता निराश नहीं हुए जबरन सुनाने लगे ,तब श्रोताओं ने कहा कि हम आपको  2 मिनट झेलेंगे लेकिन इसके बदले आपको समोसा , मिठाई  सभी को   खिलाने होंगें । वक्ता सहर्ष स्वीकार किया ,लेकिन श्रोता भारी मन से आइडिया  सुने या झेले। आइडिया खत्म हुआ ,श्रोता नाश्ता करके तृप्त हुए।  वक्ता अपनी बात ज्यादा अंग्रेजी में ही ग्रामर को ताख पर रखकर बोले,  बीच मे एक बुद्धिजीवी करेक्शन कर रहे थे , लेकिन वक्ता पर कोई असर नहीं पड़ा।  ऐसे भी जहां कई बुद्धिजीवी एक साथ होते हैं वहां कोई किसी की बात सुनना पसंद नहीं करता है सिवाय लाभ के। जब भी कभी कोई आइडिया बताता तो पूरा माहौल सदन की तरह हो हल्ला करता है।कुछ लोग पक्ष में, कुछ विपक्ष में हो जाते हैं।शायद ऐसा कर सदन में होने का एहसास होता है। वक्ताओं की बात से ऊबने की वजह है कि एक ही बात को बार बार कहना। श्रोता जानते हैं कि कौन क्या बोलेगा ? मसलन " लेना - लेना नहीं, देना - देना सीखें ।' काम इसके विपरीत है। " डियूटी में ब्यूटी " आदि तकियाकलाम बन गया है डॉक्टर साहब का। चर्चा देश दुनिया के होते -  होते घर की लुगाई तक पहुंच जाती है। मुझे लगता है कि वसंत ऋतु में जीर्णशीर्ण पेड़ों में भी जान आ जाती है।

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