सत्ता की भूख ही राजनीतिक शुचिता बन गई है।

  सत्ता के भूखे ,न जाने कितने छद्म चेहरे लेकर आम आदमी के पास आते हैं, पहचाना मुश्किल है!


राजनीति में नैतिकता ,सिद्धांत ,जनसेवा, शुचिता की बात होती है। क्या सत्ता की भूख को राजनीतिक शुचिता कह सकते हैं ? कतई नहीं। यही कारण है कि सत्ता सुखभोगियों को रोकने के लिए ही देश में दल बदल कानून लागू किया गया था लेकिन सुविधा भोगियों ने इसका भी काट खोज लिया। पहले विधायक ,सांसद एक निश्चित संख्या में दल बदल कर लेते थे ताकि दल बदल कानून लागू न हो सके। अब इससे आगे बढ़कर  सीएम ही अपने दल के साथ विरोधियों के साथ मिलकर नई सरकार बना लेते हैं। ऐसी अवस्था में विपक्ष सत्ता में और सत्ता वाले विपक्ष में हो जाते हैं। यह सिलसिला बिहार में अनेक बार देखने को मिला ।2015 में जदयू राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ी ,सरकार बनाई और कुछ समय बाद जदयू भाजपा के साथ सरकार बना ली। 2020 में जदयू भाजपा के साथ चुनाव लड़ी ,सरकार बनाई और कुछ समय बाद जदयू भाजपा छोड़ राजद ,कॉंग्रेस के साथ सरकार बना ली। इसके बाद फिर जदयू भाजपा के साथ सरकार बनाकर चल रही है। 2025 में विधानसभा का चुनाव है ।अगर भाजपा नीतीश कुमार को सीएम उम्मीदवार नहीं घोषित करती है तो फिर पलटी मारते देर नहीं लगेगी। विधायकों, सांसदों के दल बदल की बातें करना बेकार है। जब सरकार की यही राजनीतिक शुचिता, नैतिकता, सुशासन ,जनसेवा है तो विधायकों, सांसदों की क्या बात करें? ऐसे पलटी मार सरकार या नेताओं को सबक सिखाने की जरूरत है ताकि राजनीति आदर्श कायम हो।

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