अगर भारतीय संविधान नहीं होता तब क्या वंचितों को अधिकार मिलता ?
संविधान की अनुपस्थिति में यदि मनुस्मृति भारतीय समाज का आधार होती, तो यह संभावना बहुत कम होती कि वंचित लोगों को अधिकार मिलते और वे सम्मानपूर्वक जीवन जी पाते।
मनुस्मृति और वंचितों के अधिकार
मनुस्मृति एक प्राचीन हिंदू धर्मशास्त्र है जो समाज को वर्ण व्यवस्था के आधार पर विभाजित करती है। इस व्यवस्था में, लोगों को उनके जन्म के आधार पर चार मुख्य वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और विभिन्न उप-वर्णों में बांटा गया है। शूद्रों और तथाकथित अछूतों (जो वर्ण व्यवस्था से बाहर थे) को मनुस्मृति में बहुत निम्न स्थान दिया गया है और उनके लिए कई प्रतिबंध और असमान नियम निर्धारित किए गए हैं।
अधिकारों का अभाव: मनुस्मृति के अनुसार, शूद्रों और अछूतों को शिक्षा, संपत्ति रखने और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया था।
भेदभावपूर्ण व्यवहार: उन्हें अक्सर समाज के अन्य वर्गों द्वारा भेदभावपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता था।
दंडात्मक प्रावधान: मनुस्मृति में विभिन्न वर्णों के लिए अलग-अलग दंडात्मक प्रावधान थे, जहाँ निचले वर्णों के लिए कठोर दंड और उच्च वर्णों के लिए छूट का प्रावधान था।
सामाजिक गतिशीलता का अभाव: इस व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता लगभग असंभव थी, जिसका अर्थ है कि एक व्यक्ति जिस वर्ण में पैदा होता था, उसे उसी में जीवन भर रहना पड़ता था।
इसके विपरीत, भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक दस्तावेज है जो समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है। यह सभी नागरिकों को, उनके जन्म, जाति, धर्म, लिंग या किसी अन्य आधार पर भेदभाव किए बिना, समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है। संविधान ने अस्पृश्यता को समाप्त किया और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान किए।
कुछ लोग मनुस्मृति के पक्ष में क्यों हैं?,
कुछ लोग आज भी मनुस्मृति के पक्ष में निम्नलिखित कारणों से हो सकते हैं:
धार्मिक और पारंपरिक विश्वास: कुछ लोग इसे एक पवित्र और प्राचीन ग्रंथ मानते हैं जो हिंदू धर्म और संस्कृति का अभिन्न अंग है। वे मानते हैं कि इसमें दिए गए नियम और कानून शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं।
सामाजिक व्यवस्था का तर्क: कुछ लोगों का तर्क है कि मनुस्मृति एक व्यवस्थित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करती है, जहाँ हर व्यक्ति अपनी भूमिका निभाता है और समाज सुचारु रूप से चलता है। वे मानते हैं कि यह सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देती है।
पुनरुत्थानवादी विचारधारा: कुछ हिंदू राष्ट्रवादी या रूढ़िवादी समूह प्राचीन भारतीय गौरव और परंपराओं को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, और मनुस्मृति को उस गौरवशाली अतीत का प्रतीक मानते हैं।
गलत व्याख्या या अज्ञानता: कुछ लोग मनुस्मृति के वास्तविक प्रावधानों से पूरी तरह परिचित नहीं होते या उसकी व्याख्या अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं, जिससे उन्हें लगता है कि यह समाज के लिए एक अच्छा ग्रंथ है।
जातिगत श्रेष्ठता की भावना: दुर्भाग्य से, कुछ लोग आज भी जातिगत श्रेष्ठता की भावना रखते हैं और मनुस्मृति को अपने विशेषाधिकारों को वैध ठहराने का एक साधन मानते हैं।
हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आधुनिक भारत में मनुस्मृति को एक कानूनी या नैतिक संहिता के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है। भारतीय संविधान ही देश का सर्वोच्च कानून है जो सभी नागरिकों के अधिकारों और सम्मान की रक्षा करता है।

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