संजीव भट्ट का मामला : मोदी पर अघोषित आपातकाल का लगा आरोप !
यह भारत में एक जटिल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा रहा है. यहाँ इस घटना का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत है:
संजीव भट्ट भारतीय पुलिस सेवा (IPS) के पूर्व अधिकारी हैं, जिन्हें 2011 में निलंबित कर दिया गया था और बाद में सेवा से बर्खास्त कर दिया गया. उन्हें मुख्य रूप से 1990 के एक हिरासत में मौत के मामले और 2002 के गुजरात दंगों से संबंधित उनकी गवाही के लिए जाना जाता है.
1990 का हिरासत में मौत का मामला
संजीव भट्ट पर 1990 में गुजरात के जामनगर में एक व्यक्ति की हिरासत में मौत के संबंध में आरोप लगाए गए थे. उस समय भट्ट जामनगर में अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (ASP) थे. आरोप है कि उन्होंने और उनकी टीम ने एक दंगे के दौरान लगभग 133 लोगों को हिरासत में लिया था, जिनमें से एक प्रभुदास माधवजी वैश्नानी की रिहाई के कुछ दिनों बाद अस्पताल में मृत्यु हो गई थी. वैश्नानी के परिवार ने आरोप लगाया कि उनकी मृत्यु पुलिस हिरासत में यातना के कारण हुई थी.
इस मामले में, संजीव भट्ट को 2019 में जामनगर की एक सत्र अदालत ने हत्या के लिए दोषी ठहराया और उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुनाई. संजीव भट्ट ने इन आरोपों का लगातार खंडन किया है और दावा किया है कि वे उस समय घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे और आरोप राजनीति से प्रेरित हैं. आकाशी भट्ट का बयान भी इसी संदर्भ में है कि उनके पिता उस व्यक्ति से कभी मिले ही नहीं और घटना के समय वे हजारों किलोमीटर दूर थे.
2002 के गुजरात दंगे और संजीव भट्ट की गवाही
संजीव भट्ट 2002 के गुजरात दंगों के संबंध में अपनी गवाही के लिए भी चर्चा में रहे हैं. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (SIT) के सामने दावा किया था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 फरवरी, 2002 की रात को एक बैठक में पुलिस अधिकारियों को "हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने" की अनुमति देने का निर्देश दिया था. हालांकि, SIT ने भट्ट के दावों को खारिज कर दिया और कहा कि उनके पास इसका कोई पुख्ता सबूत नहीं है और उनकी गवाही अविश्वसनीय थी.
गिरफ्तारी और कानूनी प्रक्रिया
संजीव भट्ट को 2018 में 1990 के हिरासत में मौत के मामले में गिरफ्तार किया गया था. उनकी गिरफ्तारी और बाद में दोषसिद्धि को उनके परिवार और समर्थकों ने राजनीतिक प्रतिशोध बताया है. उनका दावा है कि संजीव भट्ट को उनकी सच बोलने की हिम्मत और सरकार की आलोचना के लिए निशाना बनाया जा रहा है. दूसरी ओर, सरकार और न्यायिक अधिकारियों का कहना है कि यह एक कानूनी प्रक्रिया है और भट्ट के खिलाफ सबूतों के आधार पर कार्रवाई की गई है.
"अघोषित आपातकाल" का आरोप
संजीव भट्ट के मामले को उनके समर्थकों द्वारा "अघोषित आपातकाल" और "मोदी की तानाशाही" के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. उनका तर्क है कि सरकार असंतोष को दबाने और ईमानदार अधिकारियों को चुप कराने के लिए राज्य मशीनरी का दुरुपयोग कर रही है. हालांकि, सरकार इन आरोपों का खंडन करती है और कहती है कि कानून अपना काम कर रहा है.
संजीव भट्ट का मामला एक व्यक्ति की कानूनी लड़ाई से कहीं अधिक है; यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, सत्ता के दुरुपयोग के आरोपों और राजनीतिक असंतोष के स्थान पर चल रही बहस को दर्शाता है. उनका मामला भारत में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सिविल लिबर्टी के पैरोकारों के बीच एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है.

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