प्रकृति का आदर: राष्ट्रपति मुर्मू के शब्दों में एक गहरा सबक
प्राकृतिक को दोहन -
क्षरण करने वाले को सबक लेना चाहिए।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने अपने पिता द्वारा लकड़ी काटने और जमीन खोदने से पहले प्रकृति का नमन करने और क्षमा याचना करने की बात कही, मानवीय संवेदनाओं और पर्यावरण के प्रति गहरे सम्मान का एक मार्मिक उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह केवल एक व्यक्तिगत स्मृति नहीं, बल्कि एक शाश्वत दर्शन है जो आज के समय में अत्यधिक प्रासंगिक है।
आज जब हम जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षरण की चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तब राष्ट्रपति के ये शब्द हमें उस मौलिक रिश्ते की याद दिलाते हैं जो मनुष्य और प्रकृति के बीच सदियों से रहा है। उनके पिता का यह कार्य केवल एक रस्म नहीं था, बल्कि एक गहरी समझ का प्रतीक था कि हम प्रकृति के अंश हैं, उसके स्वामी नहीं। लकड़ी काटना या जमीन खोदना, जीवन यापन के लिए आवश्यक कार्य थे, लेकिन इन्हें कभी भी निर्दयता या अधिकार की भावना से नहीं किया गया। इसके बजाय, इसमें कृतज्ञता और एक प्रकार की विनम्रता थी – यह स्वीकार करना कि हम जो कुछ भी प्रकृति से लेते हैं, वह उसकी देन है, और उसके लिए हमें आभारी होना चाहिए।
यह दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि पर्यावरण संरक्षण केवल वैज्ञानिक सिद्धांतों या सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं है। इसकी जड़ें हमारी संस्कृति, हमारे मूल्यों और हमारी संवेदनाओं में निहित हैं। जब हम प्रकृति को एक जीवित इकाई के रूप में देखते हैं, जिससे हमारा सीधा भावनात्मक जुड़ाव है, तो उसे नुकसान पहुंचाने का विचार भी हमें विचलित करता है। राष्ट्रपति मुर्मू के पिता का कार्य हमें याद दिलाता है कि कैसे हमारे पूर्वज प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीते थे। उनके लिए पेड़, नदियाँ, और धरती सिर्फ संसाधन नहीं थे, बल्कि पूजनीय थे।
आधुनिक समाज में, हम अक्सर प्रकृति को केवल 'संसाधन' के रूप में देखते हैं, जिसका दोहन किया जा सकता है। इस मानसिकता ने हमें अपने पर्यावरण से दूर कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक प्रदूषण, वनों की कटाई और जैव विविधता का नुकसान हो रहा है। राष्ट्रपति का बयान हमें इस उपभोक्तावादी दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने और एक अधिक सम्मानजनक और टिकाऊ तरीके से प्रकृति के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करता है।
यह हमें सिखाता है कि प्रत्येक कार्य, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, यदि वह जागरूकता और सम्मान के साथ किया जाए, तो उसमें गहरे अर्थ समाहित होते हैं। लकड़ी काटने से पहले नमन करना और क्षमा याचना करना, यह दर्शाता है कि हम प्रकृति से जो कुछ भी लेते हैं, वह उसकी उदारता है, और हमें उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। यह एक शक्तिशाली अनुस्मारक है कि हमारा अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर करता है, और हमारा कर्तव्य है कि हम उसका संरक्षण करें, न कि उसे नष्ट करें।
राष्ट्रपति मुर्मू के ये शब्द एक प्रेरणा हैं। यह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने, अपने पूर्वजों के ज्ञान को समझने और पर्यावरण के प्रति अपनी संवेदनशीलता को फिर से जगाने का अवसर देते हैं। आइए हम सब इस भावना को आत्मसात करें और प्रकृति के साथ अपने संबंधों को पुनः परिभाषित करें, उसे केवल एक संसाधन के बजाय एक पूजनीय सत्ता के रूप में देखें। तभी हम एक सचमुच टिकाऊ भविष्य का निर्माण कर पाएंगे।
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