हरिप्रसाद का चौथा सूर्योदय: जब ज़िद ने किस्मत को झुकाया।

   

 चौथे प्रयास में बने थे आईएएस !


धनवार गाँव, बिहार की सरहद पर एक ऐसा कोना था, जहाँ मिट्टी की गंध जीवन से भी ज़्यादा गहरी थी, और जहाँ रेल की पटरियाँ भले ही न बिछी हों, पर सपनों की उड़ान दूर क्षितिज तक जाती थी. इसी माटी का बेटा था रामचेल यादव का हरिप्रसाद, जिसे गाँव वाले प्यार से "हरुआ" कहते थे – एक नाम, एक पहचान, एक उम्मीद.

हरुआ का बचपन हल की रेखाओं, खेतों की खुशबू और मदरसे की काली स्लेट पर उकेरे अक्षरों के बीच बीता. उसका पहला खिलौना मिट्टी की गाड़ी थी, और ज्ञान का पहला दीपक उसने खलीफा मियाँ की मस्जिद की दीवार पर कोयले से जलाया था, ठीक वैसे ही जैसे एक नन्हा पौधा सूरज की पहली किरण से जीवन पाता है. छह लोगों का परिवार, जहाँ खाना भी गिनकर मिलता था, माँ की आँखों में एक सपना चमकता था – "बेटा, पढ़-लिख के बाबू बन जा, ताकि हम भी एक दिन तेरे हाथ की चाय पी सकें." यह चाय की प्याली नहीं, बल्कि एक माँ के आशीर्वाद की गर्माहट थी, जो हरिप्रसाद की रगों में लहू बन कर दौड़ रही थी.

आँखों में "एक दिन बड़ा अफसर बनूँगा" का सपना लिए, हरिप्रसाद ने 2004 में दिल्ली की ओर रुख किया. स्नातक के बाद केंद्रीय सचिवालय सेवा (CSS) में मिली ₹6,500 की नौकरी उसके लिए दिल्ली का पहला दरवाज़ा थी. दिन भर फाइलें पलटते, अधिकारियों के हस्ताक्षर करवाते, वह रात को किताबों से भिड़ जाता. कॉरिडोर में घूमते अफसरों को देखकर वह सोचता, "क्या कभी मेरा भी नामपट इस दरवाज़े पर लगेगा?" यह प्रश्न उसके भीतर एक बीज की तरह पनप रहा था, जिसे समय और संघर्ष की खाद चाहिए थी.


संघर्ष की लपटें और सपनों की लौ



2006 में हरिप्रसाद ने डरते-डरते अपना पहला UPSC फॉर्म भरा. कोई कोचिंग नहीं, कोई गुरुमंत्र नहीं – बस पुरानी किताबें और ऑफिस के बाद चार घंटे की लगन. जैसे एक बीज मिट्टी को चीरकर बाहर आता है, वैसे ही उसने प्रीलिम्स पास किया, मेन्स भी दिया, पर सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पैर फिसल गया. गाँव में खबर पहुँची कि हरुआ "दिल्ली में अफसर बनने की पढ़ाई कर रहा है" – किसी ने इसे टोना कहा, किसी ने सपना, पर माँ हर रोज़ तुलसी के आगे दीपक जलाती रही, ठीक वैसे ही जैसे एक दीपक अँधेरे में आशा की किरण फैलाता है. हरिप्रसाद खामोश रहा, उसे अपनी बात जुबान से नहीं, नतीजों से कहनी थी.

2008 में उसने अपनी रणनीति बदली. भूगोल और इतिहास, ये दो विषय उसके नए हथियार बने. दिल्ली के सरकारी क्वार्टर की छत पर रात-रात भर पढ़ाई होती. लालटेन अब ट्यूबलाइट में बदल गई थी, पर उसकी आँखों की चमक पहले से ज़्यादा गहरी थी, जैसे कोयले की खान में छिपा हीरा अपनी चमक का इंतज़ार करता है. भूगोल में 368 और इतिहास में 334 अंक मिले, इंटरव्यू भी अच्छा रहा, पर अंतिम सूची में नाम फिर नहीं आया. उस दिन कई अफसरों की फाइलें पलटते हुए उसका मन बोला, "तू भी एक दिन इन्हीं में होगा." यह आवाज़ उसके भीतर के शेर की गर्जना थी, जो हार मानने को तैयार नहीं था.

2009 तक सिविल सेवा की तैयारी उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी. ऑफिस में लोग उसे "UPSC वाला बाबू" कहने लगे थे, जैसे किसी नदी का नाम उसके वेग से पड़ता है. इस बार मेन्स और इंटरव्यू दोनों शानदार रहे, पर किस्मत अभी भी उसकी परीक्षा ले रही थी – अंतिम सूची में नाम फिर नदारद. घर से फोन आने लगे, "बेटा, शादी कर लो. ज़िंदगी ठहर गई है क्या?" हरिप्रसाद मुस्कुराता, "अभी ठहरना मना है माँ, अभी मंज़िल बाक़ी है," जैसे एक यात्री को अपनी मंजिल पर पहुँचने से पहले विश्राम करना पसंद नहीं.


चौथा सूर्योदय: जब ज़िद बनी सफलता का सूत्र



2010 – यह उसका अंतिम मौका था, जैसे एक योद्धा के लिए अंतिम युद्ध. उम्र बढ़ रही थी, नौकरी का दबाव भी था, पर उसके भीतर एक आग जल रही थी जो बुझ नहीं रही थी, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी तपिश से हर दिन नया सवेरा लाता है. हर शब्द अब उसका हथियार था, हर नोट्स में उसके आँसू और पसीने की स्याही थी. इंटरव्यू में उससे पूछा गया, "आपके पास कोचिंग नहीं थी, फिर इतना मजबूत आधार कैसे?" हरिप्रसाद ने कहा, "सर, कोचिंग के पास होती है, हमारे पास तो ज़िद होती है," यह जवाब उसकी अटूट इच्छाशक्ति का प्रमाण था, जो एक अनगढ़ पत्थर को मूर्ति में बदल देती है.

और फिर वह दिन आया, जब UPSC 2010 के अंतिम परिणाम में हरिप्रसाद का नाम चमक रहा था – "All India Rank-###". पिता की आँखों में आँसू थे – "हमरे हरुआ अफसर बन गइलें!", जैसे सूखे खेत में पहली बारिश की बूंदें गिरती हैं. गाँव में पहली बार रंगीन पोस्टर छपा – "धनवार के लाल हरिप्रसाद अब जिलाधिकारी साहब हैं!" हरुआ जब अफसर बनकर गाँव लौटा, तो वही पगडंडी आज फूलों से भरी थी, और वह बूढ़ा मास्टर जी, जिसने कभी उसे फेल कहा था, आज उसकी बाँह पकड़कर बोले, "अब तो तुहें मास्टर कहे के लायक बन गइल हउ!" वही मिट्टी, वही लोग, पर आज नज़रिया बदल गया था, जैसे एक कली खिलकर सुंदर फूल बन जाती है.

आज भी जब वे किसी गाँव के स्कूल में जाते हैं, तो बच्चों से कहते हैं – "मैं भी बिना कोचिंग, बिना गाइडेंस, सिर्फ़ सरकारी नौकरी और ज़िद्द के सहारे यहाँ पहुँचा हूँ. तुम भी पहुँच सकते हो." यह कहानी उन लाखों युवाओं की है जो छोटी नौकरी से बड़ी लड़ाई लड़ते हैं, जो हारने के बाद फिर से उठते हैं. हरिप्रसाद सिर्फ़ अफसर नहीं बने – वे सबका हौसला बन गए, ठीक वैसे ही जैसे एक छोटा सा दिया पूरे अँधेरे को रोशन कर देता है.


हरिप्रसाद की यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची सफलता बाहरी साधनों पर नहीं, बल्कि भीतर की ज़िद और अदम्य इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है. 

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