धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा: मानव निर्मित दीवारें और बदलता समाज !- प्रो प्रसिद्ध कुमार।

   



मनुष्य ने अपनी सहूलियत, पहचान और कार्य विभाजन के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा जैसी संरचनाएं गढ़ीं। लेकिन समय के साथ, ये अवधारणाएं मानव-निर्मित पहचानों से कहीं आगे बढ़कर, नफरत, द्वेष, ईर्ष्या और शोषण का हथियार बन गईं। यहां तक कि त्वचा का रंग, जो कि विशुद्ध रूप से भौगोलिक कारणों से निर्धारित होता है, भी भेदभाव का एक बड़ा कारण बन गया, जिसका दंश दुनिया भर के लोगों ने झेला है।


रंगभेद का कड़वा सच


दक्षिण अफ्रीका इसका एक जीता-जागता उदाहरण है, जहां काले और गोरे लोगों के बीच आसमान-ज़मीन का फर्क था। इस भयावह रंगभेद ने महात्मा गांधी को अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी, और नेल्सन मंडेला ने दशकों तक इसके खिलाफ संघर्ष किया, जेल गए, लेकिन अंततः विजय प्राप्त की। भारत में भी, यह "कोढ़" सदियों से मौजूद है और आज भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है।

आज भी, जब कोई अजनबी मिलता है या सहकर्मी के रूप में साथ काम करता है, तो उसके धर्म और जाति को जानने की उत्सुकता लोगों के मन में बनी रहती है। अक्सर अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष सवालों के माध्यम से ये जानकारी हासिल की जाती है, और फिर उसी के आधार पर व्यवहार तय होता है। अगर व्यक्ति स्वजातीय निकलता है, तो बातचीत गोत्र और शाखाओं तक पहुंच जाती है।


बदलाव की बयार और आशा की किरण


लेकिन एक सुखद बदलाव भी देखने को मिल रहा है। आज के पढ़े-लिखे युवा इन संकीर्ण विचारों से दूर होते जा रहे हैं। वे धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की दीवारों को तोड़ रहे हैं, चाहे वह अंतर-जातीय विवाह करके हो या दोस्ती का हाथ बढ़ाकर। यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है जो एक अधिक समावेशी और समतावादी समाज की ओर इशारा करता है।


समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण: एक मानव निर्मित जाल


समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, ये सभी भेद सामाजिक संरचनाएँ हैं। इनका निर्माण समाज ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप किया था, लेकिन धीरे-धीरे ये जटिल होकर सामाजिक स्तरीकरण और असमानता का कारण बन गईं। यह एक प्रकार का मानव निर्मित जाल है, जिससे बाहर निकलना हम सभी के लिए एक चुनौती है।



दोहों में निहित गहरी सीख


कवि रहीम ने इस बात को कितने सुंदर शब्दों में कहा है:

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान॥

यह दोहा हमें सिखाता है कि किसी व्यक्ति की पहचान उसकी जाति या बाहरी बनावट से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान और गुणों से होती है। जिस तरह तलवार का महत्व उसकी धार से होता है, न कि उसकी म्यान से, वैसे ही व्यक्ति का मोल उसके आंतरिक मूल्यों से है।

कबीर दास जी ने भी इस विषय पर कई प्रभावशाली दोहे कहे हैं:

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।

पाछे पाछे हरि फिरैं, कहत कबीर कबीर॥

यह दोहा सीधे तौर पर धर्म और जाति की बात नहीं करता, लेकिन इसका सार यह है कि जब व्यक्ति का मन शुद्ध होता है, तो वह किसी भी बाहरी भेद से परे हो जाता है। शुद्ध मन वाले व्यक्ति को किसी बाहरी पहचान की आवश्यकता नहीं होती।

 संदेश: मानवता ही हमारा धर्म


हमें यह समझने की आवश्यकता है कि धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा केवल पहचान के साधन मात्र हैं, न कि भेदभाव के उपकरण। हमारी सबसे बड़ी पहचान मानवता है। जब हम इन कृत्रिम सीमाओं को लांघकर एक-दूसरे को इंसान के रूप में देखेंगे, तभी हम एक सच्चे और सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण कर पाएंगे।

क्या हम सब मिलकर इन पुरानी दीवारों को ढहाकर एक नए, समतावादी और प्रेम से भरे समाज का निर्माण कर सकते हैं?




 

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