​संयुक्त परिवार का टूटना और एकल परिवार की चुनौतियाँ !- प्रो प्रसिद्ध कुमार।

   


​हम सबने अपनी-अपनी वैकल्पिक दुनिया रच ली छोटे-छोटे घोंसलों में, लेकिन घोंसले बनाकर हम भूल गए कि कब, कहां, क्यों रचा था यह संसार। यह पंक्ति आज के समाज में बढ़ती एकल परिवार की प्रवृत्ति और संयुक्त परिवारों के विघटन को बखूबी दर्शाती है।

​कभी भारतीय समाज की पहचान माने जाने वाले संयुक्त परिवार, जहां दादा-दादी, चाचा-चाची और भाई-बहन एक छत के नीचे रहते थे, अब एक दुर्लभ दृश्य बन गए हैं। शहरों की भागदौड़ भरी जिंदगी, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह और आर्थिक मजबूरियों ने लोगों को अपने मूल परिवार से दूर कर दिया है। परिणामतः, एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, जहाँ पति, पत्नी और उनके बच्चे ही होते हैं।

​लेकिन क्या ये एकल परिवार हमें वह सुरक्षा, भावनात्मक सहारा और सामाजिक जुड़ाव दे पा रहे हैं, जो संयुक्त परिवार देते थे? जवाब अक्सर 'नहीं' होता है।

​एकल परिवारों की कमियाँ:

​भावनात्मक अलगाव: एकल परिवारों में बच्चे अक्सर अकेले महसूस करते हैं। दादा-दादी की कहानियों और अनुभवों से वंचित, वे अपने बड़ों के ज्ञान और संस्कारों से दूर हो जाते हैं। माता-पिता दोनों के कामकाजी होने पर बच्चों को अक्सर अकेलेपन का सामना करना पड़ता है, जिससे उनमें भावनात्मक असुरक्षा की भावना पनप सकती है।

​जिम्मेदारियों का बोझ: संयुक्त परिवार में जिम्मेदारियां बंट जाती थीं। बच्चों की देखभाल से लेकर घर के कामों तक में सभी का सहयोग होता था। एकल परिवार में यह सारा बोझ पति-पत्नी पर आ जाता है, खासकर पत्नियों पर, जिन्हें घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं। यह तनाव और आपसी मतभेद का कारण बन सकता है।

​संस्कारों का अभाव: संयुक्त परिवार एक तरह का पाठशाला था, जहाँ बच्चे बड़ों का सम्मान करना, मिल-जुल कर रहना, और साझा करने जैसे महत्वपूर्ण जीवन मूल्य सीखते थे। एकल परिवारों में यह अवसर कम मिलता है, जिससे बच्चों में स्वार्थ और अकेलापन की भावना बढ़ सकती है।

​सामाजिक सुरक्षा की कमी: मुश्किल समय में, चाहे वह आर्थिक हो या स्वास्थ्य संबंधी, संयुक्त परिवार एक मजबूत सहारा होता था। आज, एकल परिवारों को अक्सर ऐसी स्थितियों में अकेले ही संघर्ष करना पड़ता है।

​यह सच है कि कभी-कभी घर से निर्वासित होने की स्थिति व्यक्ति को कुछ सराहनीय कार्य करने के अवसर भी देती है। यह हमें आत्मनिर्भर और मजबूत बनना सिखाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी जड़ों को ही भूल जाएं।

​आज जरूरत इस बात की है कि हम एकल परिवारों की इन कमियों को समझें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि परिवार का मतलब सिर्फ माता-पिता और भाई-बहन नहीं, बल्कि हमारे बड़े और बाकी रिश्तेदार भी होते हैं। हमें अपनी भागदौड़ भरी जिंदगी में से अपनों के लिए समय निकालना होगा और अपने बच्चों को उन संस्कारों से जोड़ना होगा, जो हमारे संयुक्त परिवारों की पहचान थे। जीवन जीने की आशा रखने वाला व्यक्ति मरुस्थल को भी थोड़ा सराहनीय बना सकता है, और यही आशा हमें अपने परिवारों को फिर से संजोने की प्रेरणा दे सकती है।

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